23 सितंबर, 2011

ओ अजनवी


जान न पाया कहाँ से आई
ओर हों कौन ओ अजनवी
जाने कब तुम्हारा आना
मेरे जीने का बहाना हों गया |
ये सलौना रूप और पैरहन
और आहट कदमों की
छिप न पाये हजारों में
ले चले दूर बहारों में |
दिल में हुई हलचल ऐसी
सम्हालना उसे मुश्किल हुआ
हर शब्द जो ओंठों से झरा
हवा में उछला फिज़ा रंगीन कर गया |
हों तुम पूरणमासी
या हों धुप सुबह की
साथ लाई हों महक गुलाब की
तुम्ही से गुलशन गुलजार हों गया |
चहरे का नूर और अनोखी कशिश
रंगीन इतनी कि
रौशनी का पर्याय हों गयी |
दिल में कुछ ऐसे उतारी
गहराई तक उसे छु गयी
वह काबू में नहीं रहा
कल्पना में खो गया |

आशा


22 सितंबर, 2011

मन बावरा


मन बावरा खोज रहा
घनी छाँव बरगद की
चाहत है उसमे
बेपनाह मोहब्बत की |
यहाँ वहाँ का भटकाव
और सब से होता अलगाव
अब सहन नहीं होता
एकांत पा बेचैन होता |
अब चाहता ठहराव
अपने धुमंतू जीवन में
समय भी ठहर जाए
भर दे नई ऊर्जा ह्रदय में |
अब तक अनवरत
भागता रहा
बचपन कब बीता
याद नहीं आता |
है सुख का पल क्या
जान नहीं पाता
बस भागता रहता
कुछ पाने की तलाश में |
चाहता है क्या ,जानता नहीं
पर है इतना अवश्य
कहीं गुम हो गयी है
पहचान मेरी |
अब ऊब गया इस बेरंग उदास
एक रस जीवन से
बच नहीं पाया
अस्थिरता
के दंशों से |
जन्म से आज तक
पल दो पल की भी
शान्ति न मिल पाई
इस बंजारा जीवन में |
पर अब भी है दुविधा बाकी
क्या यह ठहराव
दे पाएगा आज भी
कुछ पल का सुकून |

आशा



















20 सितंबर, 2011

ताज महल


उस दिन एक गाइड ने
कहानी कही अपने अंदाज में
वह आगे बढता जाता था
कई कहानी ताज की सुनाता था |
उसी से सुनी थी यह भी कहानी
विश्वास तो तब भी न हुआ था
इतना नृशंस शहंशाह होगा
मन को यह स्वीकार न हुआ |
निर्माण कार्य में जुटे कारीगर
दूर दूर से आए थे
कुशल इतने अपने हुनर में
थी न कोइ सानी उनकी |
ताज महल के बनाते ही
वे अपने हाथ गवा बैठे
था फ़रमान शाहजहां का
जो बहुत प्रेम करता था
अपनी बेगम मुमताज से |
वह चाहता न था
कोइ ऐसी इमारत और बने
जो ताज से बराबरी करे |
जीवन के अंतिम पलों में
था जब बेटे की कैद में
अनवरत देखता रहता था
इस प्रेम के प्रतीक को |
आज भी बरसात में
दौनों की आरामगाह पर
जो बूँदें जल की गिरती हैं
दिखती परिणीति परम प्रेम की |
यह कोइ नहीं कहता
अकुशल थे कारीगर
बस यही सुना जाता है
आकाश से प्रेम टपकता है |

आशा




18 सितंबर, 2011

कल्पना के पंख


जीवन में पंख लगाए
आसमान छूने को
कई स्वप्न सजाए
साकार उन्हें करने को |
उड़ती मुक्त आकाश में
खोजती अपने अस्तित्व को
सपनों में खोई रहती थी
सच्चाई से दूर बहुत |
पर वह केवल कल्पना थी
निकली सारी खोखली बातें
ठोस धरातल छूते ही
लगा वे थीं सतही बातें |
और तभी समझ पाई
कल्पना हैं ख्याली पुलाव
होते नहीं सपने भी सच्चे
होती वास्तविकता कुछ और |

आशा

16 सितंबर, 2011

नफ़रत



कई परतों में दबी आग
अनजाने में चिनगारी बनी
जाने कब शोले भड़के
सब जला कर राख कर गए |
फिर छोटी छोटी बातें
बदल गयी अफवाहों में
जैसे ही विस्तार पाया
वैमनस्य ने सिर उठाया |
दूरियां बढ़ने लगीं
भडकी नफ़रत की ज्वाला
यहाँ वहां इसी अलगाव का
विकृत रूप नज़र आया |
दी थी जिसने हवा
थी ताकत धन की वहाँ
वह पहले भी अप्रभावित था
बाद में बचा रहा |
गाज गिरी आम आदमी पर
वह अपने को न बचा सका
उस आग में झुलस गया
भव सागर ही छोड़ चला |

आशा





15 सितंबर, 2011

वह दृष्टि


वे आँखें क्या जो झुक जायें
मन में है क्या, न बता पायें
पर मनोभाव पढ़ने के लिए
होती आवश्यक नज़र पारखी |
भावों की अभिव्यक्ति के लिये
होती है कलम आवश्यक
वह कलम क्या जो रूक जाये
भावों को राह न दे पाये |
मन में उठते भावों को यदि
लेखनी का सानिध्य मिले
सशक्त लेखनी से जब
शब्दों को विस्तार मिले
वह दृष्टि क्या, जो न पढ़ पाये
उनका अर्थ न समझ पाये |

आशा



14 सितंबर, 2011

हिन्दी से परहेज कैसा

भाषा अपनी भोजन अपना
रहने का अंदाज है अपना
भिन्न धर्म और नियम उनके
फिर भी बंधे एक सूत्रे से |
है देश के प्रति पूरी निष्ठा
रहते सब भाई चारे से
भारत में रहते हैं
हिन्दुस्तानी कहलाते हैं
फिर भाषा पर विवाद कैसा |
विचारों की अभिव्यक्ति के लिए
सांझा उनको करने ले लिए
कोइ तो भाषा चाहिए
हो जो सहज सरल
ओर बोधगम्य
लिए शब्दों का प्रचुर भण्डार |
हिन्दी तो है सम्मिलित रूप
यहाँ प्रचलित सभी भाषाओं का
जो भी उसे अपनाए
लगे वह उनकी अपनी सी |
जब इंग्लिश सीख सकते हैं
उसे अपना सकते है
फिर हिन्दी को अपनाने से
राष्ट्र भाषा स्वीकारने में
है परहेज कैसा ?
आशा