29 अक्तूबर, 2011

असफल क्यूं


भुलाए कैसे बीतें पलों को
जीवन में लगे ग्रहण को
पहले न था अवरोध कहीं
थी जिंदगी भी सरल कहीं |
परिवेश बदला वह बदली
पर समायोजन न कर पाई
होता संघर्ष ही जीवन
यह तक न जान पाई |
नितांत अकेली रह गयी
अन्तरमुखी होती गयी
उचित सलाह न मिल पाई
विपदाओं में घिरती गयी |
रोज की तकरार में
आस्था डगमगा गयी
हर बार की तकरार में
मन छलनी होता गया |
माना न खोला द्वार उसने
बंद किया खुद को कमरे में
क्या न था अधिकार उसको
लेने का स्वनिर्णय भी |
आज है सक्षम सफल
फिर भी घिरी असुरक्षा से
कभी विचार करती रहती
शायद है उसी में कमीं |
विपरीत विचारों में खोई
समझ न पाई आज तक
चूमती कदम सफलता बाहर
निजि जीवन में ही असफल क्यूँ ?


27 अक्तूबर, 2011

कुछ विचार बिखरे बिखरे

पहले उसे अपना लिया ,फिर निमिष में बिसरा दिया
अनुरोध निकला खोखला ,प्रिय आपने यह क्या किया |

बीती बातें वह ना भूला ,कोशिश भी की उसने
इन्तजार भी कब तक करता ,गलत क्या किया उसने |

है आज बस अनुरोध इतना ,घर में आकार रहिये
रूखा सूखा जो वह खाता ,पा वही संतुष्ट रहिये |

आज छत्र छाया में तुम्हारी ,अभय दान मिले मुझे
पाऊँ जो आशीष तुम्हारा ,कहीं रहे ना भय मुझे |

जो भी थे कल तक तुम्हारे ,वे किसी के हो गए
इन्तजार व्यर्थ लगता उनका ,जो दुखी कर चल दिए |
आशा


23 अक्तूबर, 2011

कशिश उसकी




द्वारे सजाए अल्पना से
थी कोशिश प्रथम उसकी
क्यारी सजी सुन्दर फूलों की
छवि आकर्षक उसकी |
त्यौहार दीपों का मनाया
दीपक जलाए स्नेह के
होने लगे हैं शुभ शगुन भी
उसी के आगाज के |
चाहा न कोइ उपहार था
था अनुरोध भी नहीं
जो पा लिया थी खुश उसी में
थी कशिश उसमें कहीं |

आशा


20 अक्तूबर, 2011

दीपावली


टिमटिमाते तारे गगन में
अंधेरी रात अमावस की
दीपावली आई तम हरने
लाई सौगात खुशियों की |
कहीं जले माटी के दीपक
रौशन कहीं मौम बत्ती
चमकते लट्टू बिजली के
विष्णु प्रिया के इन्तजार में |
बनने लगी मावे की गुजिया
चन्द्रकला और मीठी मठरी
द्वार खुला रखा सबने
स्वागतार्थ लक्ष्मी के |
आतिशबाजी और पटाखे
हर गली मोहल्ले में
नन्ही गुडिया खुश होती
फुलझड़ी की रौशनी में |
समय देख पूजन अर्चन
करते देवी लक्ष्मी का
खील बताशे और मिठाई
होते प्रतीक घुलती मिठास की |
दृश्य होता मनोरम
तम में होते प्रकाश का
होता मिलन दौनों का
रात्री और उजास का |
प्रकाश हर लेता तम
फैलाता सन्देश स्नेह का
चमकता दमकता घर
करता इज़हार खुशियों का |

आशा


18 अक्तूबर, 2011

प्रकृति प्रेमी


ऊंची नीची पहाडियां
पगडंडी सकरी सी
मखमली फैली हरियाली
लगती उसे अपनी सी |
बचपन से ही था अकेला
एकांत प्रिय पर मृदुभाषी
भीड़ में भी था एकाकी
कल्पना उसकी साथी |
था गहरा लगाव उसे
प्रकृति की कृतियों से
मन मयूर नाच उठता था
उनके सामीप्य से |
हरी भरी वादियों में
कलकल करता झरना
ऊंचाई से नीचे गिरता
मन चंचल कर देता
जलचर थलचर भी कम न थे
नभचर का क्या कहना
लगता अद्भुद उन्हें देखना
उनमें ही खोए रहना |
था ऐसा प्रभावित उनसे
क्यूँ की वे थे भिन्न मानव से
घंटों गुजार देता वहाँ
तन्मय प्रकृति में रहता |
हर बार कुछ नया लिखता
देता विस्तार कल्पना को
रचनाएँ ऐसी होतीं
परिलक्षित करतीं प्रकृति को |
भावों की बहती निर्झरणी
यादों में बसती जाती
खाली एकांत क्षणों में
आँखों के समक्ष होती |
वह खुशी होती इतनी अमूल्य
जिसे व्यक्त करता
मन चाहे स्वरुप में
खो जाता फिर से प्रकृति में
आशा


12 अक्तूबर, 2011

चाहत


आँखें उसकी नील कमल सी
और कशिश उनकी ,
जब खींचेगीं बाँध पाएंगी
होगी परिक्षा उनकी |
उनका उठाना और झुक जाना
गहराई है झील की
आराधना और इन्तजार
चाहत है मन मीत की |
जाना न होगा दूर कहीं
किसी जन्नत के लिए
दूरियां घटती जाएँगी
पास आने के लिए |
कल्पनाओं की उड़ान मेरी
परवान चढती जाएगी
अब रोज ही त्यौहार होगा
आएगी घर में खुशी |
आशा


10 अक्तूबर, 2011

हूँ मैं एक आम आदमी


होने को है आज
अनोखा त्यौहार दीपावली का
अभिनव रंग जमाया है
स्वच्छता अभियान ने |
दीवारों पर मांडने उकेरे
और अल्पना द्वारों पर
है प्रभाव इतना अदभुद
हर कौना चमचमाया है |
बाजारों में आई रौनक
गहमा गहमी होने लगी
पर फिर भी सबके चेहरों पर
पहले सा उत्साह नहीं |
मंहंगाई की मार ने
आसमान छूते भावों ने
और सीमित आय ने
सोचने को बाध्य किया |
फीका स्वाद मिठाई का
नमकीन तक मंहंगा हुआ
उपहारों की क्या बात करें
सर दर्द से फटने लगा |
लगती सभी वस्तुएँ आवश्यक
रोज ही लिस्टें बनती है
पहले सोचा है व्यर्थ आतिशबाजी
पर बच्चे समझोता क्यूं करते
यदि मना किया जाता
वे उदास हो जाते |
हर बार सोचता हूँ
सबकी इच्छा पूरी करूँ
ढेरों खुशियाँ उनको दूं
पर सोच रह जाता अधूरा |
क्यूँ उडूं आकाश में
हूँ तो मैं एक आम आदमी
और भी हें मुझसे
मैं अकेला तो नहीं
जो जूझ रहा मंहंगाई से |

आशा