04 अगस्त, 2012

प्रायश्चित

 
प्रातः से संध्या तक
क्या गलत क्या सही आचरण
उस पर चिंतन मनन और आकलन
सरल तो नहीं
यदि स्थिर मन हो कर सोचें
आत्मावलोकन  करें
कुछ तो परिवर्तन होगा
स्वनियंत्रण भी होगा |
वही निश्चित  कर पाएगा
होती क्यूं रुझान
उन कार्यों  के प्रति
जो सर्व मान्य नहीं
उचित और अनुचित में
विभेद क्षमता जागृत तो होगी
पर समय लगेगा
है कठिन विचारों पर नियंत्रण
सही दिशा में जाने का आमंत्रण
पर असंभव भी नहीं
तभी है परम्परा त्रुटियाँ स्वीकारने की
उन सभी कार्यों के लिए
जो हैं उचित की परिधी के बाहर
क्यों न प्रयत्नरत हों अभी से
आदत बना लें समय निर्धारण करें
आत्म बल जागृत होते ही
त्रुटियों पर नियंत्रण होगा
जाने अनजाने यदि हुईं भी
प्रायश्चित की हकदार होंगी |
आशा



01 अगस्त, 2012

उड़ चला पंछी


उड़ चला पंछी कटी पतंग सा
अपनी यादें छोड

समस्त बंधनों से हो  मुक्त 
उस अनंत आकाश में
छोड़ा सब कुछ यहीं
यूँ ही इसी लोक में
बंद मुट्ठी ले कर आया था
आते वक्त भी रोया था
इस दुनिया के
प्रपंच में फँस कर
जाने कितना सह कर
इसी लोक में रहना था
आज मुट्ठी खुली हुई थी
जो पाया यहीं छोड़ा
पुरवासी परिजन छूटे
वे रोए याद किया
अच्छे कर्मों का बखान किया
पर बंद आँखें  न खुलीं
वह चिर निद्रा में सो गया
वारिध ने भी दी जलांजलि
वह बंधन मुक्त  हो गया
पञ्च तत्व से बना पिंजरा
अग्नि में विलीन हो गया |
आशा















30 जुलाई, 2012

कैसा है सम्बन्ध


मैं दीपक तुम बाती
मिट्टी मेरी माँ
हूँ कठोर
नष्ट तो हो सकता हूँ
पर जल कर राख नहीं
तुम बाती
जन्मीं कपास से
आहार जिसे मिला
मेरी ही माँ से
तुम कोमलांगी गौर वर्ण
स्नेह से भरपूर
ज्वाला सी जलतीं
कर्तव्य समझ अपना
तम हरतीं
अपनी आहुति देतीं
पर हितार्थ
है सम्बन्ध अटूट
मेरा तुम्हारा
मैं कठोर पर तुम कोमल
यह कैसा संयोग
गहरी श्वास ले
तुम तो चली जाती हो
एक अमिट काली लकीर
यादों की मुझ पर
छोड़ जाती हो
जब रह जाता एकल
कभी तोड़ दिया जाता
या फैक दिया जाता हूँ
है  कैसा सम्बन्ध
परस्पर हम दौनों में
मैं सोच नहीं पाता |
आशा 

27 जुलाई, 2012

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद


उपन्यास सम्राट श्री प्रेमचन्द (1880-1936) का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था |हिन्दी और उर्दू दौनों ही भाषा पर उनका  सामान अधिकार था |अपने लेखन के लिए दौनों ही भाषाओं का उपयोग किया प्रारम्भ में उर्दू नें लिखा फिर बाद में हिन्दी में |साहित्य में यथार्थवादी परम्परा की नीव रखी |उन्हें हिन्दी कहानी का पितामह माना गया है |उस समय की परिस्थितियों का इतना सजीव वर्णन उनकी रचनाओं में है कि आज भी उनका उतना ही महत्त्व है जो पहले था |३३ वर्ष के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत छोड़ गए जो गुणात्मक दृष्टि से अमूल्य है |अपने साहित्य में जीवन के विभिन्न रूपों को बहुत मनोयोग से उकेरा है |उन्हें शत शत नमन |
यह छोटी सी रचना है :-
जिसने जन्म लिया
उसे तो जाना ही है
लंबा सफर जीवन का
जो पीछे छूट गया
आने वाली पीढ़ी  के लिए
खजाने सा छोड़ जाना है
सशक्त लेखिनी के उदगारों से
गहराई तक रची बसी
कालजई रचनाएँ
हैं महत्त्व पूर्ण  आज भी
बीता कल तो रीत गया
पर वर्तमान में भी
जीवंत उसे कर जाता है |
आशा


25 जुलाई, 2012

आदत सी हो गयी है

कुछ बड़े कुछ छोटे छोटे 
 समेटे हुए बहुत कुछ
 कल आज या भविष्य की 
या कल्पना जगत की 
 कुछ कहते कुछ छिपा जाते 
रंगीन या श्वेत श्याम
 चित्रों से सजाए जाते 
 विश्वसनीय दिखाई देते
 पर सारे सच भी नहीं होते
 होते स्वतंत्र विचारों के पक्षघर
 फिर भी प्रभावित किसी न किसी
से कुछ उपयोगी कुछ अनुपयोगी
 सामिग्री परोसते सजा कर
 विभिन्न कौनों में तस्वीरें भी लुभातीं
 बहुत कुछ कहना चाहतीं 
आदत सी हो गयी है
 सर्व प्रथम प्रातः
 उसे हाथ में थामने की 
 उससे चिपके रहने की
 सरसरी नजर से उसे टटोलने की
 यदि किसी दिन ना मिल पाए
 चाय में चीनी भी कम लगती 
 आदत जो पड़ गयी है
 हाथ में कप चाय का ले
 सुबह अखबार पढने की |

23 जुलाई, 2012

था उसका कैसा बचपन


 जाने कब बचपन बीता
यादें भर शेष रह गईं
थी न कोई चिंता
ना ही जिम्मेदारी कोई
खेलना खाना और सो जाना
चुपके से नजर बचा कर
गली के  बच्चों में खेलना
पकडे जाने पर घर बुलाया जाना
कभी प्यार से कभी डपट कर
जाने से वहाँ रोका जाना
तरसी निगाहों से देखना
उन खेलते बच्चों को
मिट्टी के घर बनाते
सजाते सवारते
कभी तोड़ कर पुनः बनाते
किसी से कुट्टी किसी से दोस्ती
अधिक समय तक वह भी न रहती
लड़ते झगड़ते दौड़ते भागते
बैर मन में कोई न पालते
ना फिक्र खाने की ना ही चिंता घर की
ना सोच छोटे बड़े का
ना भेद भाव ऊँच नीच का
सब साथ ही खेलते 
साथ  साथ रहते
वह बेचारा अकेला
कब तक खेले
उन बेजान खिलौनों से
ऊपर से अनुशासन झेले
यह करो यह न करो
वह सोच नहीं पाता
मन मसोस कर रह जाता
ललचाई निगाहों से ताकता
उन गली के बच्चों को
अकेलापन उसे सालता
था उसका कैसा बचपन |
आशा