04 नवंबर, 2012

आवागमन इनका



अहसास इनका
समस्त चेतन जगत में
आवागमन प्रक्रिया सचराचर में
अनुभव सभी करते
लाभ   भी लेते
गति इनकी होती अविराम
फिर भी एक सी नहीं होती
परिवर्तित होती रहती
कभी तीव्र तो कभी मंद
कभी अवरुद्ध भी होती
तभी तो कभी गर्म
तो कभी सर्द आहों का
जलवा नजर आता
इन पर नियंत्रण के लिए
अनेकों यत्न किये जाते
कितनी ही औषधियां लेते
ध्यान योग को अपनाते
पर ऐसा न हो पाता
गति ह्रदय की होती संचालित
इनके ही प्रताप से
इनका है क्या नाता मनुज से
किसी ने न जाना
श्वासों का आना जाना
किसी ने न पहचाना
प्राणों के संग हुई
जब भी बिदाई इनकी
किसी ने इस का अनुभव
यदि  किया भी  हो
उसे सब से बाँट नहीं पाया
क्यूं कि वह बापिस 
लौट कर ही नहीं आया |
आशा

02 नवंबर, 2012

दीवानापन



प्यार भरा दीवानापन
कहाँ नहीं खोजा उसने
जब भी हाथ आगे बढ़ाया
मृग तृष्णा में फंसा पाया
गुमनाम जिंदगी जीते जीते
अकुलाहट बेचैन करे
मन एकाकी विद्रोह करे
साथ उसके कोइ न चले
बाहर वर्षा की बूंदे
अंतस में भभकती ज्वाला
सब लगने लगा छलावा
कैसे ठंडक मिल पावे
मन चाहा सब हो  पाए
खोना बहुत सरल है
पर पाना आसान नहीं
है गहरी खाई दौनों में
जिसे पाटना सरल नहीं
फासले बढ़ते जाते
फलसफे बनते जाते
अपने भी गैर नजर आते
कभी लगती फितरत दिमागी
या छलना किसी अक्स की
दीवानापन या आवारगी
हद दर्जे की बेबसी
बारिश कीअति  हो गयी
दीवानगी भी गुम हो गयी
आँखें नम हो कर रह गईं |
आशा 

31 अक्तूबर, 2012

वे दिन



वे दिन भी क्या दिन थे, उनकी धुंधली याद |
अधूरा सा जीवन था ,रहा न कोइ साथ  ||

 रहता भी तो क्या करता ,था जीवन बेकार
अहसास न था प्यार का , और धीमी  रफ्तार || 

 तुम्हें मैंने जान लिया, पहचाना पा पास
दुःख सुख तो आते रहते ,था  तुझ पर  विश्वास ||


 चलता सदा काल चक्र , और समय बलवान |
  पिंजर से होते ही मुक्त  ,दुःख का होगा त्राण ||
आशा 

28 अक्तूबर, 2012

रोज एक धमाका


पेपर  में कुछ नया नहीं
 है मिडीया भी बेखबर नहीं
नित नए घोटाले
उनपर बहस और आक्षेप
केवल छींटाकशी और
आपस में दुर्भाव
कोइ नहीं बचा इससे
यदि थोड़ी भी शर्म बची होती
इतने घोटाले न होते
उंसके  खुलासे न होते
मुंह पर स्याही न पुतती
कोइ तो बचा होता
बेदाग़ छवि जिसकी होती
श्वेत वस्त्रों पर दाग
गुनाहों के ,न होते
रोज एक धमाका होता है
किसी घोटाले का खुलासा होता है
टी .वी .पर बहस या चर्चा
लगती गली के झगडों सी
शोर में गुम हो जाता है
क्या मुद्दा था बहस का
कई बार शर्म आती यही सोच कर
ये कैसे पढ़े लिखे हैं
सामान्य शिष्टाचार से दूर
अपनी बात कहने का
 और दूसरों को सुनने का 
 धैर्य भी नहीं रखते
शोर इतना बढ़ जाता कि
आम दर्शक ठगा सा रह जाता
सोचने को है बाध्य
क्या लाभ ऐसी बहस का
जिसका कोइ  ओर ना छोर
यूँ ही समय गवाया
कुछ भी समझ न आया
सर दर्द की गोली का
 खर्चा और बढ़ाया |
आशा