06 जनवरी, 2013

आचरण

सदाचार घर परिवार में 
पर बाहर होता अनाचार 
घर में अनुशंसा इसकी 
पर उन्मुक्त आचरण घर के बाहर
नैतिकता की बातें अब 
किताबों में सिमट कर रह गईं ||
मन व्यथित होता देख 
दोहरे आचरण वालों को 
तभी खड़े हैं नैतिक मूल्य 
विधटन के द्वार पर |
कितने ही क़ानून बने 
पर पालन नहीं होता 
हर नियम की अवज्ञा का 
तोड़ निकल आता है 
शातिर  बच ही जाते हैं 
बचने का जश्न मनाते हैं |
यदा कदा  पहले भी 
ऐसे किस्से होते थे
पर संख्या उनकी थी नगण्य 
 इतनी  आजादी भी न थी
  रिश्तों की थी समझ 
अनाचार से डरते थे |
आधुनिकता की दौड में
 नैतिकता  का हुआ ह्रास
पाश्चात्य सभ्यता सर चढ़ बोली
हुआ मानवता का उपहास |
कलुषित आचरण में लिप्त 
फैलाते  गन्दगी समाज में
शायद पशु भी हैं  इनसे अच्छे 
मन से संयत होते हैं |
 देती शिक्षा सही आचरण 
जागरूप होता   जनमन
साथ करो उनलोगों का
 जिनका नहीं दोहरा चलन
 हो दूर  बुराई से
वही करें जो उचित लगे
 यही बात यदि युवा समझेते 
गलत काम कोई ना करते |
आशा








03 जनवरी, 2013

आदित्य की प्रथम किरण

आदित्य की प्रथम किरण सा
कितना  सुखद  सानिध्य
और तुम्हारा स्नेहिल स्पर्श 
कर जाता अभिमंत्रित
 मन मयूर को\
व्योम में  सूर्य बिम्ब से
अरुणिम अधर 
प्रमुदित करते 
मधुर मुस्कान से
 फूल झरते 
अदभुद भाव लिए मुख पर 
कर जाती बिभोर 
टीस  सी होने लगती जब 
कोई छूना चाहता तुम्हें
चाहत है यही 
भूले से भी न छुए किसी का 
साया भी तुम्हे 
सृष्टि की अनमोल कृति हो
ऐसी ही रहो |
आशा

31 दिसंबर, 2012

नव वर्ष कैसा हो

आप सब को नव वर्ष के लिए हार्दिक शुभकामनाएं | प्रस्तुत है एक रचना :-


उडती चिंगारी ,सुलगती  आग 
बढता जन आक्रोश 
फिर भी  मतलब के लिए 
अपने हाथ सेकते लोग 
सारा ही वर्ष बीता 
अस्थिरता के आगोश में 
हादसे बढ़ते गए
बर्बर प्रहार होते रहे 
विश्वास क़ानून पर न रहा 
प्रजातंत्र  शर्मसार हुआ 
कोई भी सुरक्षित नहीं 
क्या वृद्ध क्या नाबालिग 
पुरुष हों या महिलाएं 
आहत जनमानस हुआ
कुछ ही काला धन  निकला 
भ्रष्टाचार फला फूला 
नैतिकता का अवमूल्यन 
देख शर्म से सर झुकता 
मन में भावअसुरक्षा का 
गहरा पैठता जाता 
चरित्र हनन ,शील हरण
वीभत्स हादसे हुए आम
ये  दुखद बढती घटनाएं 
मानवता को झझकोर रहीं |
है  आकांक्षा यही
आने वाला वर्ष इस जैसा  न हो
साम्राज्य अमन चैन का हो
वरद हस्त ईश्वर का हो |

आशा



28 दिसंबर, 2012

पूर्णविराम


सिलसिला कार्यों का
अनवरत चलता रहा
जन्म से आज तक
 थमने का नाम नहीं लिया
  बचपन तो बचपन ठहरा
ना कोई चिंता ना बेचैनी
बस आनंद ही आनंद
जिंदगी रही सरल सहज
अल्पविराम पहला आया
जिंदगी की इवारत में
जब पढने लिखने की उम्र हुई
गृह कार्य की चिंता हुई
कई बार क्रोध आया
जीवन नीरस सा लगा
बगावत का मन भी हुआ
जब तक इति उसकी न हुई
व्यस्तता कुछ अधिक बढ़ी
जब दायित्वों की झड़ी लगी
कर्तव्यों का भान हुआ
अर्धविराम तभी लगी
जिंदगी की रवानी में
दायित्वों  के बोझ तले
जिंदगी दबती गयी
समस्त कार्य पूर्ण किये
अभिलाषा भी शेष नहीं
जीने का मकसद पूर्ण हुआ
पूर्णता का अहसास हुआ
संतुष्ट भाव से खुद को सवारा
अब है इंतज़ार
जीवन की इवारत में
लगते  पूर्णविराम का |
आशा


25 दिसंबर, 2012

नया अंदाज

क्या देख कर
 मुस्कुरा रही हो
जाने  क्या सोच रही हो
सभी को लुभा रही हो |
तुम्हारे चेहरे  का नूर
यह आँखों की चमक
कहती है बहुत कुछ
घुल जाती  मिठास मन में
तुम्हें देख कर |
सरिता भावों से भरी
करती भाव बिभोर
कोई त्रुटि न रह जाए
मन  में रहता भय 
जमाने की बुरी नजर
 से बचाए तुम्हे कैसे |
रहो सदा ऐसी ही
है कामना यही
प्यार भरे अंदाज का
 अदभुद उपहार यही |
आशा 




22 दिसंबर, 2012

दरिंदगी

शरीर मैं नासूर सा 
इस समाज में जन्मा 
कैसा  यह दरिंदा 
जिसने सारे नियम तोड़ 
सारी कायनात को 
शर्मसार कर दिया 
उसकी सबसे हसीन  कृति को 
उसकी  अस्मिता को निर्लज्ज  हो 
दानव की तरह तार तार कर दिया
एक पल को भी नहीं सोचा 
वह भी किसी की कुछ लगती होगी 
माँ,बहन पत्नी सी होगी 
प्रेमिका  यदि हुई किसी की 
अस्मत फिर भी महफ़ूज़ होगी 
किसी की अमानत होगी 
बहशियाना हरकत से 
वह क्या कर गया ?
सजा फांसी की भी
कम है उसके लिए 
इससे भी कड़ी
सजा का हकदार है वह 
इस  घिनोनी हरकत का
 इस दरिंदगी का हश्र
कुछ  तो असर होगा 
जब अन्य युवा देखेंगे हश्र 
उसकी  दरिंदगी का |






20 दिसंबर, 2012

जब भी देखा उसे


जब  भी देखा उसे
चेहरा दर्प से चमकता था
थी अजीब सी कशिश
सब से अलग लगता था |
कानों में खनकती थी
आवाज मधुर उसकी
चाल भी ऐसी
सानी नहीं जिसकी |
था व्यक्तित्व ही ऐसा
मितभाषी और मिलनसार
पराया दर्द अपना समझ
तन मन से सेवा करता  था |
हर बात  पर उसकी
रुबाई या गजल बन जाती थी
यह एक शगल सा हो गया
मैं व्यस्त उसी में हो गया   |
उसी ने सूचना दी जाने की
अपने उद्देश्य को पाने की
खुश भी हुआ पर बिछडने से
ठेस लगी दिल को |
रुक न सका कह ही दिया
तुम्हारे लिए जाने कितनी
गजलें लिखी मैंने
आज मैं सौंपता तुम्हें |
नम आँखों से विदा किया
विमोह को बढ़ाने न दिया
उसने  भी एक  पन्ना न पलता
साथ ले कर चल दिया
मैं सोचता ही रह गया
था क्या विशेष उसमें
जो खुद को रोक न पाया
जज्बातों मैं बहता गया |
आशा