02 दिसंबर, 2013

है बोझ तू




ए जिन्दगी है बोझ तू
ढोते ढोते थक गया हूँ
कैसे तुझसे मुक्ति पाऊँ
सोचने में अक्षम हूँ
तूने कभी हंसना सिखाया था
समय के साथ भी
चलना सिखाया था
मैंने बड़ी शिद्दत से
 उसे सीख लिया था
फिर क्यूं आज
 होती  जा रही  तू
दूर बहुत दूर मुझसे
बढ़ रहा है बोझ दिल पर
गहन उदासी गहराई है
सोच उभरने लगता है
कहीं भूल तो नहीं हुई मुझसे
या ऐसा क्या  हुआ  
कि छिटक कर दूर
 भी न हुई मुझसे
मुझे अकेलेपन  का है अहसास
घबराहट भी नहीं होती
परन्तु कुछ प्रश्न ऐसे हैं
जो अनुत्तरित ही रहते
उत्तर मिल नहीं पाते
फिर तुझसे क्यूं सांझा करूं
बिना बात तेरा बोझ सहूँ
अब बहुत हुआ बहुत सहा
ए जिन्दगी कर मुक्त मुझे
तुझसे छुटकारा चाहता हूँ 
मैं सोना चाहता हूँ |
आशा




30 नवंबर, 2013

स्वप्न अमूर्त


-स्वप्नों में जीना
उनमें ही खोए रहना
आनंद है ऐसा
गूंगे के स्वाद  जैसा |
अवर्णनीय वह मिठास
और उसकी ऊष्मा
मन के हर कौने में
होना ही चाहिए |
महक उसकी दूर तक
पहुंचे या ना पहुंचे
प्यार पाने की आस
कम न होनी चाहिए |
स्वप्नों में आना चले जाना
कोई  नई बात नहीं
पर उससे जन्मा उल्लास
आत्मसात होना ही चाहिए |
कभी मिलन की आस भी
बाकी होना चाहिए
हकीकत तो सभी जानते हैं
कभी स्वप्नों में भी खोना चाहिए |
गूंगे के लिए स्वाद गुड़ का
मन को तो छूता पर
पर व्यक्त नहीं कर पाता
स्वप्न अमूर्त भी कुछ ऐसा ही होता  |

27 नवंबर, 2013

तस्वीर स्वप्नों की



स्वप्नों की तस्वीर कैसे उतारूं
हैं इतने चंचल
 स्थिर रहते ही नहीं
ना ही आसान
कुछ पलों के लिए
उन्हें रोक पाना
 कोइ नया सुन्दर सा
 पोज दिलवाना
वे बारम्बार पहलू बदलते
कभी पूरी की पूरी
स्थिति ही बदल देते
कोइ वर्जना उन्हें
प्रभावित नहीं कर पाती
वे हैं घुमंतू
बस आते जाते रहते हैं
महफिल में बातें स्वप्नों की 
करना तो अच्छा लगता है
पर बिना प्रमाण वे
सब सतही लगते हैं
चंचल मन के साथ वे
रह नहीं पाते
यहाँ वहां भटकते हैं
कभी रंगीन कभी बेरंग लगते हैं |


25 नवंबर, 2013

खुद का कुछ भी नहीं




चला जा रहा सोच में डूबा
भीड़ से अलग हट कर
एक बूथ कई प्रत्याशी
नगण्य वोटिंग करवाने वाले
कई वोट डालने वाले
एक बिचारी छोटी सी
इलेक्ट्रोनिक वोटिग मशीन
कैसे चुनाव संपन्न होगा
बिना भेदभाव के |
अजब प्रजातंत्र है
कोई  भी स्वतंत्र नहीं यहाँ
प्रत्याशी से जब बात हुई
बड़ा दुखी था किसको बताए
अपनी व्यथा कथा
कितने पापड बेले थे
एक टिकिट पाने को
सभी दाव  पर लगा हुआ था
सफलता का  सहरा बांधने को |
मतदाता का सोच
ले चला गाँव की ओर
वह था नितांत अनिभिग्य
है कौन प्रत्याशी
किसने क्या क्या कार्य किये
बस चिन्ह  की पहचान थी
अपना अभिमत देने को
ऐसे भी थे लोग जो बोले
कई जीते कोई हारे
 क्या फर्क पड़ता है
हम तो इतना जानते हैं
जहां थे वहीं रहेंगे |
सब ऐसे बंधन में बंधे हैं
स्वतंत्र सोच भी उनका नहीं
वह भी उधार का है
खुद का कुछ भी नहीं |