04 अप्रैल, 2014

शब्दबाण



तरकश से निकला तीर
 बापिस नहीं आता
हृदय बींधता जब
खोता जाता संयम |
भूलना भी चाहता पर
धैर्य साथ न देता
घाव अधिक गंभीर
नासूर होता जाता |
शब्द चुभ कर रह जाते
चुभन शूल की देते
शेष रहे जीवन की
शान्ति भंग कर जाते |
कभी याद आता फेंका गया
वह मखमल में लिपटा जूता
जिसे भुलाना संभव नहीं
 केवल पीर ही देता |
वह मृदुभाषी पहले भी न था
अपेक्षा भी नहीं थी
पर यह कैसे भूल गया
 कहाँ लगेगा शब्दबाण
कितनों को आहात करेगा
प्रतिशोध का कारण तो न होगा ?

02 अप्रैल, 2014

है गुनाहगार तेरी



Photo
है वह गुनाहगार तेरी क्यूं कि
 तू भी कुछ कर सकता है
यह जज्बा तुझमें
 पैदा होने न दिया |
 है तू भी  सक्षम
 हर उस कार्य के लिए
जो वह हाथों में कर के  देती रही  
आगे पीछे घूमती रही
बिना बैसाखी चलना
 तू भूल गया |
आज भी तू कोई कदम
 उठा नहीं सकता
बिना उसके सहारे के |
प्यार और दुलार ने
तुझे अकर्मण्य बना दिया
ना कभी कुछ कर पाया
ना चाहत जागी कर्मठ बनने की
स्वयं कुछ करने की |
पहले माँ के
पल्लू से बंधा रहा
अब हो कर रह  गया है
परजीवी अपनी होनहार पत्नी का |

आशा

30 मार्च, 2014

बड़े बैनर तले

बड़े बैनर तले
खोली एक दुकान
बड़ा सा शोरूम बनाया
कर्मचारियों की फौज वहां
दिखावा है भरपूर
पर ना ही मानक
गुणवत्ता का
नाहीं मिले कुशल कारीगर
अब पछतावा हो रहा है
आखिर क्या मिला वहां
ऊंची दुकान फीके पकवान
किसी ने सच कहा है
जो चमकता है वह सोना नहीं |
आशा

28 मार्च, 2014

उनका वैभव



खेतों के उस पार
अस्ताचल को जाता  सूरज
वृक्षों के बीच छिपता छिपाता
सुर्ख दिखाई देता सूरज |
पीपल के पेड़ पर
पक्षियों ने डेरा डाला
कलरव सुनाई देता उनका
फिर अचानक शान्ति हो गयी
उनकी रात हो गयी |
अब घरों की छत पर
शाम उतर आई है
आसमान भी हुआ धूसर
पर छत पर बहार आई है |
बच्चे कर रहे धमाल
तरह तरह के करतब करते
नए नए गानों पर थिरकते
चेहरे पर थकान का नाम नहीं |
मस्ती ही उनका वैभव
यह जीवन लौट कर न आएगा
यादों में समा जाएगा
बचपन की सौगात सा |
आशा

25 मार्च, 2014

कुरुक्षेत्र



एक पार्टी  ने धक्का दिया
दूसरी ने बांह थामी 
पद प्रलोभन हावी हुआ
वह तुम्हारी तरफ हुआ |
इस बात को अभी
अधिक समय नहीं हुआ
तुमने फिर किक लगाई
फुटबाल हो कर रह गया |
तीसरा मोर्चा  याद आया
जुगाड़ की  वहां जाने की 
वहां भी वही खींचातानी
इसकी उसकी बुराई |
राजनीति इतनी ओछी है
कल्पना न की थी कभी
हाई कमान किसे समझे 
आज तक मालूम नहीं |
आम जनता का रुख भी
स्पष्ट नहीं लगता
भीतर घात का भय
 सदा बना रहता |
चुनाव गले की फांसी है
या गले में अटकी हड्डी
दलदल में फँस गया है
निकल नहीं सकता |
कुरुक्षेत्र की लड़ाई में 
चक्रव्यूह में फँस गया है 
राजनीति के मैदान में 
फुटबाल बन कर रह गया है |