22 अप्रैल, 2014

दुनिया रंग भरी

















दुनिया रंगों से भरी 
हर रंग जीवन में आता 
 किसका कैसा जीवन है
वही उसे परिलक्षित करता |
सात रंग से सजा इंद्र धनुष 
सातों फिर भी नहीं दीखते 
आपस में मिलने जुलने से
हाथ  मिला संधी करते | 
जब एक दूसरे पर होते हावी 
एक वजूद खोता अपना 
प्रथम में विलय हो जाता 
अद्भुद छटा  बिखराता |
सप्तपदी लगती आवश्यक 
अटूट बंधन में बंधने को 
जन्म  जन्म तक साथ रहे
मन्नत यही माँगते |
सात अजूबे दुनिया के 
सभी देखना चाहते 
कुछ ही होते भाग्यशाली 
उन्हें देखने का सुख पाते |
सात का होगा इतना महत्व 
पहले जान न पाया 
विचार शून्य सा होने लगा 
तभी जान पाया |
आशा 

20 अप्रैल, 2014

नया नया बना मतदाता


नया नया मतदाता बना 
था उत्साह
 प्रथम बार 
मतदान का|
इतने दिन बीत गए
 सुनते सुनते|
प्रजातंत्र में जीते हो
मताधिकार का प्रयोग करो
इसे वोट देना है
 कि उसे वोट देना है
स्वविवेक का प्रयोग करो|
प्रत्याशी हो ऐसा
जो कुछ कर पाए
देश हित हो सर्वोपरी
कठपुतली ना साबित हो|
जितने लोग उतने विचार
अलग उनकी विचार धारा
किसे चुने रोज सुनते
मन स्थिर ना हो पाता|
जाने क्यूं हतौत्साहित हुआ
पैर भारी होने लगे
कदम बढ़ना नहीं चाहते
लगता है मैं जागरूप नहीं|
अभी तक छबि धुधली सी है
किसे चुनूं मतदान करूँ
हूँ एक नया मतदाता 
क्या करूँ  समझ न पाता|
आशा

17 अप्रैल, 2014

पैनी धार



है बेवाक विचारों की परिचायक
बिकाऊ नहीं
ना ही लालायित
यशोगान के लिए |
है विशिष्ट सब से जुदा
अदभुद शक्ति छिपी इस में
भावाभीव्यक्ति के लिए |
किसी का प्रभाव न होता इस पर
ना बिकती धन के लिए
कोई  प्रलोभन झुका न पाता
उन्मुक्त भाव लेखन में होता |
पारदर्शिता की पक्षधर
यही है  लेखनी धार जिसकी पैनी
जो धार पर चढ़ जाता
उसका बुरा हाल होता |
जो सत्य से दूर भागता
इससे बच न पाता
इतना आहत होता
सलीब पर खुद चढ़ जाता |
यही बातें इसकी
मुझे इसका कायल बनातीं
मेरी लेखनी की धार
 अधिक तेज होती जाती |
आशा

15 अप्रैल, 2014

अर्थ अनेक



एक शब्द अर्थ अनेक
सब के विश्लेषण सटीक    
जब सोचा समझा उपयोग किया
कितने ही पीछे छूट गए |
शब्द कोष में खोजा उनको
एक कल्पना की  मैंने
नया साहित्य सृजन करने की
उन्हें उचित स्थान देने की |
बड़े साहित्यकारों की तरह
कुछ का उपयोग किया भी
पर खरा न उतर पाया 
उनको सम्मान देने में |
वही शब्द भाषाएँ अनेक
सब में अर्थ अलग अलग
कुछ भी तो समान नहीं
खोता गया शब्दों के समुन्दर में |
पर जो चाहा वैसी रचना
ना कल बनी न आज बन पाई
मैं उलझा रहा नए पुराने
 शब्दो के जाल बांधने में  |
अभी भी बेकली छाई है
मन चाहता तराशना
शब्दों के समूह को
नया रूप देने को |
आशा

13 अप्रैल, 2014

कुसुम



महकती चहकती
निशा सुन्दरी श्रंगार करती
सध्य खिलते सौरभ बिखेरते
डाली पर सजे पुष्पों से |
भीनी खुशबू जब आती
उसी और खींच ले जाती
पवन से हिलती डालियाँ
श्वेत चादर सी बिछ जाती  
प्रातः वृक्ष के नीचे |
सुनहरी धुप के सान्निध्य से
कुम्हलाते पर दुखी न होते
अपने सुख दुःख भूल
जीवन जीते मस्ती से |
उनकी जीने की कला
तनिक भी यदि सीखी होती
जितनी  साँसे  मिलतीं
खुशी खुशी जी लेते
उनका भरपूर उपयोग करते |
आशा