08 अक्तूबर, 2015

टूटे दिल के तार


toote dil ke taar के लिए चित्र परिणाम
टूटे वीणा के तार 
कभी ना जुड़ पाए 
किये प्रयास हजार 
पर न सुधर  पाए
पहले सी मिठास नहीं
सुर बेसुर हो गए
कण कटु लगने लगे
आकर्षण से दूर हुए
खीचातानी अधिक हुई
सहन न कर पाए
 हुए बेआव़ाज
टूट कर रह गए
तार तार हो गए
पर हार ना मानी उसने
प्रयत्न निरंतर करती थी
तार न जाने कब जुड़ जाएं
इसी आशा पर जीती थी
आस बिश्वास की डोर में
बंधती गई उलझती गई
जाने कब डोर झटके से टूटी
सारे स्वप्न बिखर गए
टूटे दिल के तार
फिर कभी ना जुड़ पाए |
आशा





05 अक्तूबर, 2015

भावना मन की



\yugal के लिए चित्र परिणाम

 हो तुम्हीं  मेरे जीवन धन
जनम जनम के साथी
तुम दीपक मैं बाती
जियूं कैसे स्नेह बिना |
जब से बंधन बांधा तुमसे
सप्तपदी को साक्षी मान
सौप दिया तन मन धन तुमको
विश्वास का संबल पा तुमको |
कभी मान अभिमान किया
रूठना मनाना भी हुआ 
इतने सौपान जिन्दगी के चढी 
साथ सदा तुमने ही दिया |
 भरपूर जिन्दगी जी ली है
कहीं कोई कमीं नहीं है
फिर भी जब मुश्किल घड़ी हो
रह न पाती तुम्हारे बिना |
है आज जन्म दिन तुम्हारा
यह शुभदिन बार बार आये 
हर पल खुशियों से भरा हो 
कोई व्यवधान नहीं आये |
है आज विशिष्ट दिन जीवन का 
  खुशियाँ साथ साथ बाँटें 
दुःख भी साथ ही झेलें
हम सदा वैसे ही रहें
जैसे  बीते कल में थे  |
आशा

एक नज़ारा

03 अक्तूबर, 2015

नानी


थकी हारी नानी  बेचारी
टेक टेक  लाठी   चलती थी
राह में ही रुक जाती थी
बार बार थक जाती थी  
नन्हां नाती साथ होता
ऊँगली उसकी थामें रहता
व्यस्त सड़क पर जाने न देता
बहुत ध्यान  उसका रखता
था बहुत ही भोलाभाला
नन्हां सा प्यारा प्यारा
रोज एक कहानी सुनता
तभी स्वागत  निंदिया का  करता
रात जब गहराती
तभी नींद उसको आती
स्वप्न में भी नानी की यादें
कहानियों की सौगातें
अपने मित्रों में बांटता
नानी को बहुत याद करता
जब बाहर जाना पड़ता
मन साथ न देता उसका
अवसर पाते ही आ जाता
बचपन अपना भूल न पाता
अपने बच्चों में वही लगाव
जब न पाता सोचता 
आखिर कहाँ कमी रह गई
 उन्हें बड़ा करने में
परिवार से जुड़ न पाए
 अपने अपने में खोये रहे
पाया भौतिक सुख संसाधन
पर प्यार से वंचित रहे
 लगती बचपन की यादें
आधी अधूरी 
 नानी दादी बिना
धन धान्य ही मिल पाया
पर न मिला 
प्यार दुलार का साया
आशा

30 सितंबर, 2015

तुझे खोजें कहाँ


अस्ताचल को जाता सूरज के लिए चित्र परिणाम
जाने क्या बात हुई
उदासी ने ली अंगड़ाई
सबब क्या था
उसके आने का
वह राज क्या था
मन की बेचैनी का
 खोज न पाई
चर्चे तेरे  अक्सर
 हुआ करते थे
कभी कम कभी बेशुमार
 हुआ करते थे
ऐसा तो कुछ भी न था
जो चोटिल कर जाता
मन को ठेस पहुंचाता
तब भी मुठ्ठी भर खुशी
दामन में समेत न पाई
अस्ताचल को जाता सूरज
जब खोता  प्रखरता अपनी
थका हारा बेचारा
पीतल की थाली सा दीखता
 बादलों में मुंह छिपाता
आसमान सुनहरा हो जाता
जाने क्या क्या याद दिलाता
उदासी शाम के धुधलके सी
गहराई मन पर छाई  
रंग उसका फीका न होता  
पुरानी किताब के पन्नों सा
छूते ही बिखरने लगता  
 कैसे समेटें  उन लम्हों को
दिल पर लिखे गए शब्दों को
ऐ मुठ्ठी भर खुशी
तुझे कहाँ खोजा जाए
परहेज़ उदासी से हो पाए |
आशा