05 जून, 2018

मुश्किल






है आज मुश्किल धड़ी
सोच कर हूँ परेशान
कैसे पिंड छुटाऊँ
उन यादों से
जिनका कभी असर
 मन पर गहरा  पड़ा
मन का सुख छीन ले गया
यादें जो मीठी हैं
कभी कभी ही  दस्तक देती हैं
मन के दरवाजे पर
पर कटु बातें तो
 डेरा जमाएं बैठी हैं
है बहुत मुश्किल  उनसे
पिंड छुड़ाकर दूर जाना
खुशहाल जिन्दगी जीना
सोच रही हूँ कोई तरकीब
कटु यादों को भूल कर
नई शुरुबात जिन्दगी में
 प्रसन्न रहने की करू |

आशा

03 जून, 2018

बैर भाव


आपस में बैरभाव 
तिल तिल बढ़ रहा है
गहरे हुए घावों को
मन में हुई दरारों को
अब सहन न कर पाएंगे
यदि यही सिलसिला
चलता रहा तब
हर तरफ शायद 

ये कत्लेआम होगा
एक दूसरे से दूरी
इतनी हो जाएगी कि
पहचान ही खो जाएगी
गहरी खाई पट न पाएगी
बारूद पर कदम होंगे
अस्तित्व कहीं खो जाएगा
भाई भाई को न पहचानेगा
मन में गठान पड़ जाएगी |
आशा

02 जून, 2018

तेरी निगाहें




ऐसी आकर्षक निगाहें तेरी
यदि पड़ गईं किसी पर
देखते ही प्यार हो जाएगा
यदि भूल से भी वह इनसे
बच  कर निकल गया
दिन पूरा उसका खराब जायगा
चेहरा तेरा खिले गुलाब सा
भीनी अनोखी सुगंध उसकी
मन को ऐसी भाई कि वह
उनमें ही डूबता रह जाएगा
 जीवन भर तेरा अभाव रहेगा
पर अपना दुःख वह किसे बताएगा |
जो होना था सो हो गया पर
 अपने दिल की बात किसे बताएगा
वह तेरे बिना अधूरा रह जाएगा
मनोरथ पूर्ण न हो पाएगा |


आशा सक्सेना 

31 मई, 2018

बेटी



1-ख्यालों में बेटी
हर समय छाई
है प्रिय मुझे

2- बेटी का दुःख
सहन नहीं होता
दिल से प्यारी
3-बेटी या बेटा
दोनों हैं  प्रिय मुझे 
हुई निहाल
 
४-बेटी या बेटा 
बड़े हो हुए गैर 
रह गई मै
 
५बेटी या बेटा
दौनों एक सामान
दौनों प्रिय हों

६-बेटी की कमीं 
हर समय खले 
मन न लगे 

७-बेटी बचालो 
पुन्य लाभ  कमालो 
लाओ बहार




आशा

आइना





है वह आइना तेरा 
हर छबि रहती कैद उसमें 
चहरे के उतार चढ़ाव 
बदलते रंग और भाव 
सभी होते दर्ज उसमें |
परिवर्तन चहरे पर होते 
सभी उसमें स्पष्ट दीखते 
है यही   विशेषता
बदलाव  अक्स में 
 किंचित भी न होता |
दिन के उजाले में 
एक एक लकीर दीखती 
सत्य की गवाही देती 
अन्धकार में सब छुप जाता 
कुछ भी न दिखाई देता |
आशा

29 मई, 2018

बहुरूपिया


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देखो जा कर दरवाजा खोल
क्यूँ गली में मच रहा शोर
चटपट से दरवाजा खोला
झाँक कर देखा उसमें से
खड़ा हुआ था एक व्यक्ति
 भयानक रूप धरे
डरा रहा था बच्चों को
जल्दी से किया बंद दरवाजा
पूंछा उसने माँ से
आखिर है वह कौन ?
रोज नए रूप में सज कर आता  
कभी डाकिये का रूप धरता
तो कभी काली माता बन जाता
क्या उसका कोई नाम नहीं
 कोई उसे क्या  काम नहीं ?
माँ ने समझाया है उसका यही काम
तरह तरह के स्वांग बनाना
और सब को हंसाना 
यही है उसकी कमाई का जरिया
कहते है उसे बहुरूपिया |
आशा
 






































सादगी




थी नादान बहुत अनजान
जानती न थी क्या था उसमे
सादगी ऐसी कि नज़र न हटे
लगे श्रृंगार भी
फीका उसके सामने |
थी कृत्रिमता से दूर बहुत
कशिश ऐसी कि आइना भी
उसे देख शर्मा जाए
कहीं वह तड़क ना जाए |
दिल के झरोखे से
 चुपके से निहारा उसे
उसकी हर झलक हर अदा
कुछ ऐसी बसी मन में
बिना देखे चैन ना आए |
एक दिन सामने पड़ गयी
बिना कुछ कहे
 ओझिल भी हो गयी
पर वे दो बूँद अश्क
जो नयनों से झरे
मुझे बेकल कर गए |
आज भी रिक्त क्षणों में
उसकी सादगी याद आती है
मन उस तक जाना चाहता है
उस सादगी में
श्रृंगार ढूंढना चाहता है |
आशा