सारी रात करवटें बदलती रहीं
जब भी कोशिश की
और अधिक नजदीक आईं
मुठ्ठी में जब कैद किया
हाथों से फिसलती गईं
रिक्त हुए जब हाथ
केवल हथेलियों पर
मिट्टी चिपकी रह गई
मन को हुआ संताप
ऐसे कैसे यादें बह गई
पर थी वे एक ख्याल
कैसे रुक जातीं
जरासी जगह काफी थी
आने जाने के लिए
या दिल में समाने के लिए
जब किसी ने बरजा
शब्दों का न मिला साथ
मन के भाव स्पष्ट न कर पाई
खुद में सिमट कर रह गई
यादें तो यादें है
जाने कब बापिस आजाएं
वह आखें मूंदे रह गई
सारे दर्द सहती गई
कभी विद्रोही दिल न हुआ
यादें जैसी थीं वैसी ही रहीं
कभी धुंधली हो जातीं
कभी बहुत गहरी हो जातीं
आशा