21 अप्रैल, 2020

हम दो किनारे नदिया के

 





हमने अपनी  जीवन   नैया  डाली
गहरी   नदिया  के जल  में  
बहाव के साथ बहती गई
फिर भी पार नहीं पहुँच पाई |
अकारण सोच विचार में उलझी रही
पर खुद पर था  अटूट विश्वास
कोई  कठिनाई जब होगी
 उसे सरलता से हल कर लूंगी |
अचानक एक ख्याल मन में आया
नदी के दौनों किनारे मिलते ही हैं कहाँ ?
कभी तो कहीं मिलते होंगे
सामंजस्य आपस में होगा तब ना |
बहुत दूर निकल आई थी
पर कहीं मिलन नजर नहीं आया
जब  गुज़री एक सेतु के नीचे से  
 वहां  तनिक ठहरना चाहा|
फिर वही प्रश्न मन में आया 
आगे बढी पीछे पलटी देखा विगत को झाँक
 मुझे ही सम्हल कर चलना था
 अपेक्षा दूसरे से कैसी |
अभी तक कोई किनारा
पास आता नहीं नजर  आया  
तभी समझ आया
 जीवन का एक नया सत्य |
 हमसफर  साथ चलते हैं
 समानांतर रेखाओं  जैसे    
पर कभी मिल नहीं पाते कई कारणों  से
कभी होती तकरार कभी अहम् का वार|
किनारों को   मिलाए रखते के लिए
कल कल बहती जलधारा
दौनों के बाच से 
बच्चे ही बन जाते सेतु दौनों  के बीच|
लहरें अटखेलियाँ करती दौनों से
नदी के दौनों किनारे 
कभी पास नहीं आते
रहते है समानांतर सदा ही इसी  तरह |
                                             आशा

19 अप्रैल, 2020

चाहे किसी का बलिदान रहा हो

 
 चाहे  किसी का भी बलिदान रहा हो
अब तो  आजाद देश  हमारा है 
हम हैं स्वतंत्र देश के नागरिक
जिसकी हमें रक्षा करनी है |
बीते कल को क्यूँ याद करें
जो बीत गया बापिस नहीं आने वाला
देश को संकट से मुक्त कराना है
प्राकृतिक आपदा से बचाना है
नियमों का गंभीरता से पालन कर
देश की   हमें रक्षा करनी है |
है बहुत बड़ी जिम्मेदारी कंधे पर 
जिसका निर्वाह हमें करना है 
यह आपदा है या महामारी है
इसका कोई इलाज नहीं 
पूरे विश्व में फैली है |
नियमों का सख्ती से पालन करना
एक यही विकल्प है हमारे पास
उसी को निभाए जाएंगे
यही संकल्प हमारा है |
आशा

18 अप्रैल, 2020

कोरा कॉपी का पन्ना


कोरा  कापी का कागज़
 खाली स्याही की बोतल 
 पैन नहीं लिखने को 
क्या करू कैसे लिखूं |
ऊपर से रौशनी भी नहीं
 कुछ भी दिखाई नहीं देता
मन  में भाव उमंग लेते   है
लिखने की इच्छा भी बहुत है
पर साधन नहीं जुट पाते हैं |
किस विधा में लिखूं सोच नहीं पाती
भाषा पर पकड़ नहीं मजबूत
मन में भावना  बलवती
यहीं पर मात खा जाती हूँ |
कभी सोचती हूँ कुछ और शौक पालूँ
 कुछ न करने से तो अच्छा है
जितना बने उतना करू
थोड़ा पढूं कुछ तो लिखूं |
पर फिर खुद की कमियाँ
नजर आने लगती है
कोई कार्य अधिक समय तक
 कर नहीं सकती |
मन में उलझने बढ़ने लगती हैं
मैं सोचती कुछ हूँ और करती कुछ और
तभी सफलता से रहती मीलों  दूर
क्या करू इस बढ़ती उम्र के साथ
सामंजस्य स्थापित कर  नहीं पाती |
जानती हूँ सब दिन एक सामान नहीं होते
बीते दिनों को याद करने से क्या लाभ
होता मन में क्षोभ कुछ भी हांसिल नहीं होता
 हाथ रीते ही रह जाते है और दिमाग कुंद |
आशा






बाल कथा





एक बाल कथा –
एक चिड़िया अकेली डाल पर बैठी थी |इन्तजार कर रही थी कब चिड़ा आए और दाना लाए |बहुत समय हो गया वह अभी तक  नहीं आया |अब चिड़िया को चिंता होने लगी |बुरे ख्यालों ने मन को घेरा |न जाने दाने की तलाश में वह कहाँ भटक रहा होगा |किसी बड़े पक्षी ने हमला तो न कर दिया होगा |अचानक एक भजन उसे याद आया
“वह जमाने से क्यूँ डरे जिसके सर पर हाथ प्रभू का”|
फिर थोड़ी देर मन बहलाया अपने बच्चों से मन का हाल बताया |पर फिर से बेचैन होने लगी |वह बार बार ईश्वर को याद करती थी और अपने पति  की कुशलता की फरियाद भगवान से करती थी |तभी देखा वह दूर से आ रहा था |दाना नहीं मिला था |चिड़िया ने सोचा दाना नहीं मिला तो क्या हुआ कल के दाने से गुजारा चला लेंगे |ईश्वर की यही कृपा बहुत है की मुसीबतों  से बचता बचाता वह यहां तक आ तो गया |किसी ने सच कहा है विपरीत परिस्थितियों में ईश्वर ही याद आता है वही सच्चा मददगार होता है |
|आशा