09 जुलाई, 2020

पर्यावरण संरक्षण


                                         हरियाली है आवश्यक
 पर्यावरण बचाने के लिए
 शुद्ध वायु का महत्व वही जानता
  जिसे घुटन भरे वातावरण में जीना होता |
हरे भरे वृक्षों के नीचे खेलना
 कितना सुखकर होता
 बालक मन ही पहचानता
गर्मीं में पंथी को छाया देते वृक्ष |
बहुत बेरहमीं से अनवरत  उन्हें काटना
 ईंधन की तरह उनका  अती का  उपयोग 
 इमारत बनाने में बल्लियों का उपयोग हो या
 लकड़ी का सामान बनाने को होती आवश्यक  लकड़ी |
 निजी स्वार्थ में लिए अत्यधिक दोहन से
प्राकृतिक संतुलन को नष्ट किया है मानव ने
नदी किनारे से काटे  गए वृक्षों  से होती तवाही
 वर्षा से किनारे कटते बहा  ले जाते मिट्टी को |
किनारों की  मिट्टी बंधी नहीं रह पाती
 पेड़ों की जड़ों  के ना होने से
 बहती नदी का प्रवाह धीमा होता
नदियां उथली होती जातीं मिट्टी के जमने से |
जल में मिलती  गंदगी नालों की
बड़े  कारखानों का अपशिष्ट भी वहीं मिलाया जाता  
जल दूषित होने से पर्यावरण कैसे स्वच्छ रह पाएगा 
तभी कहा जाता  वृक्ष लगाओ पर्यावरण बचाओ |
निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर सोचो
एक तो बढ़ती जनसंख्या तले देश दबा  है
 दूसरा निजी स्वार्थों के लिए
 अति का दोहन संसाधनों का हुआ है |
प्रकृति कब तक साथ देगी
 वह भी तो विद्रोह करेगी   
तभी तो यह बुरा  हाल हुआ है पर्यावरण का
है मनुष्य ही जिम्मेदार इस स्थिती  तक पहुँचने का |
मानव की लापरवाही से कैसे बचा जाए
प्रकृति के अनावश्यक दोहन से कैसे उबरा जाए
किस  तरह सामंजस्य स्थापित हो दौनों में
हो गया है अब आवश्यक इस पर विचार हो |
आशा



   


08 जुलाई, 2020

गरीबी एक अभिशाप






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है गरीबी एक अभिशाप
जब से जन्म लिया
यही अभिशाप सहन किया
मूलभूत आवश्यकताओं के लिए
भूख शांत करने के लिए
पैसों का जुगाड़ करने के लिए
मां कितनी जद्दोजहद करती थी
सुबह से शाम तक
यहाँ वहां भटकती थी
खुद भूखी  रह कर
 बच्चों का पेट भरती थी
कभी कभी दिन भर
 एक रोटी भी नसीब न होती थी
कडा दिल कर
बच्ची को  गोदी में ले कर  
बाहर काम करने निकली
पहले तो दुत्कार मिली
यह काम तुम्हारे बस का नहीं
अभी आराम करो
काम बहुत से मिल जाएंगे
पर बड़ी  मिन्नतों के बाद 
काम मिल पाया
सुबह से शाम तक हाथ
काम करते नहीं थकते
पर गरीबी ने मुंह फाड़ा
कम न हुई बढ़ती गई
कहावत सही निकली
आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया
पैसों की आवक बढ़ी
अब बुद्धि का हुआ ह्रास
बाहरी दिखावे नें  हाथ बढाया
कर के उधारी
की आवश्यकताएं पूरी
वह भी उधार चंद हुई
फिर आए दिन की उधारी रंग लाई
मांगने वाले घर तक आ पहुंचे
भरे समाज में इज्जत नीलाम हुई
झूट के चर्चे सरेआम हुए
सारा सुकून खोगया
क्या ही अच्छा होता
यदि झूट का दामन न  थामा होता
कठिन समय तो गुजर जाता
पर शर्मसार तो न होना पड़ता |
आशा

07 जुलाई, 2020

जिन्दगी एक प्रश्नपत्र





वह अकेली   ही नहीं घिरी है
विविध  प्रकार के  प्रश्नों से
उत्तर त नहीं सूझते 
क्या क्या जबाब दे |
प्रश्नों का अम्बार लगा है
 हल करने के लिए  
कई प्रकार  के प्रश्न  है
 आज के परिवेश में |
क्यूँ क्या कैसे कब कहाँ
 किसलिए से शुरू हुआ हैं
सही हल उनका 
कुछ भी नहीं निकलता |
मिलते जुलते उत्तर
 लिखे होते चुनाव के लिए
 यहाँ  वहां भटकना पड़ता
  उन्हें  हल करने के लिए|
किसी प्रश्न की तो है विशेषता यही
होता प्रश्न एक उत्तर अनेक
सही विकल्प खोजना होता
 उत्तर पुस्तिका में लिखना होता |
किसे सही माने किसे करे  निरस्त
जब सोच नहीं पाती 
तीर में तुक्का लगाती
कभी सही होता उत्तर  कभी गलत |
यदि  प्रश्न गलत हल किया  हो
 और नंबर कट जाते हों 
तब बहुत पछतावा होता है
क्यूँ गलत उत्तर पर निशान लगाए |
इसी तरह  जिन्दगी की गाड़ी
फंसी  है छोटी  बड़ी समस्याओं में  
जिहें हल करना होता मुश्किल
 प्रश्नपत्र की तरह |
कोई भी सहायक नहीं होता
 उसे आगे खीचने में
 खुद ही हल खोजने होते हैं 
जिन्दगी के प्रश्नों के |
  उत्तर सही  चुने यदि 
जिन्दगी सरल चलती जाएगी
वरना समस्याओं की 
संख्या बढ़ती जाएगी |
आशा


06 जुलाई, 2020

गुरू को नमन


                                       आज है गुरू पूर्णिमा 
सभी गुरूओं  को है  नमन मेरा 
सागर से गहरा कोई नहीं
माँ के दिल की गहराई 
किसी ने नापी नहीं
माँ की ममता की कोई सानी  नहीं
हमारी भलाई किसी ने जानी नहीं
केवल माँ ने ही हाथ आगे बढाए
जैसी भी  हूँ मुझे थामने के लिए
प्रथम गुरू माँ  को  मेरा प्रणाम
मेरा जीवन सवारने को
 सही राह दिखाने के लिए
खुश हाल जिन्दगी जीने के लिए
 मेरे मार्ग दर्शक को मेरा  नमन   
है आज गुरू पूर्णिमा मेरे गुरू को
मेरा शत शत नमन |   
आशा

05 जुलाई, 2020

आगे पीछे की क्या सोचूँ ?



खेल ही  में समय बिताया
कभी सोचा नहीं भविष्य का  
वर्तमान में जीने के लिए
बीते कल को याद न किया |
केवल स्वप्नों में डूबी  रही
वर्तमान की चमक दमक  ने
 इस तरह मोहा मुझे
आगे का मार्ग  भटक गई |
बहुत चाहा फिर भी  
 आगे प्रगति कर  न सकी 
कोई मददगार न मिला
 सही मार्ग दिखाने को |
कूपमंडूक सी  सिमटी रही
खुद के आसपास अपने आप में
कूए से बाहर आ न सकी
उसे ही अपनी दुनिया समझी |
आखिर दुनिया है  कैसी
कितने रंग छाए है उसमें
जब देखा ही नहीं
तब क्यूँ दोष दू किसी को  |
वर्तमान करता आकर्षित
उसमें  ही  रहना चाहती हूँ
श्वासों  का क्या ठिकाना
                                                                  आगे पीछे की क्या सोचूँ ?
                                                आशा