02 अगस्त, 2020

रक्षाबंधन

रक्षाबंधन के उपलक्ष्य में सभी  भाई  बहनों  को हार्दिक शुभ कामनाएं|
                                     बहनों ने किया सिंगार 
                                       हाथ सजाए मेंहदी  से
पैरों में लगा कर आलता  
 है इन्तजार बड़ी उत्सुकता से
माँ ने  बड़े प्यार से  बुलाया है
है रक्षा बंधन का त्यौहार
 भइया  लेने आने वाला है
आँगन में झूला डलवाया नीम की डाली  पर
लकड़ी की पट्टी मंगवाई बीकानेर से |
साड़ी सतरंगी लहरिये की लाया भाई
जयपुर के  बाजार  से
मां ने  लगाया गोटा उसमें बड़े प्यार से
हरी कांच की चूड़ियाँ लाई निखार कलाई में |
हुई  तैयार बहना बांधने को रक्षासूत्र
बांधी राखी और दीं दुआएं भर पूर
रोली चावल से लगाया  टीका
 करवाया मुंह मीठा फेनी  घेवर से |
भाई ने झुक कर
 छुए पैर चाहा आशीष जीजी से    
बहन नें की कामना
 भाई की दीर्घ आयु की |
सारे दिन गहमागहमी रही झूले पर
आनेजाने वाली सखी  सहेलियों की
कब सांझ हुई पता ही नहीं चला
 ऐसे मना त्यौहार राखी का |
आशा

01 अगस्त, 2020

आया राखी का त्यौहार

                                 आया राखी का त्योंहार
  ना तो गहमा गहमी बाजार में
 ना ही कोई उत्साह
 आम जन मानस में |
हर ओर  कोरोना
 महामारी का भय व्याप्त
मार्ग सभी अवरुद्ध हुए है
 किससे  जाना हो संभव |
बहन ने मना कर दिया
 आना है असम्भव इस बार  
मन को झटका लगा
 कैसे मानाएं यह त्यौहार
भाई बहन के समागम के  बिना |
 अजीब सा खालीपन लगेगा
घर में घेवर बना लेंगे 
मीठी खीर बनालेंगे |
 मन को समझाया 
यह साल निकल जाने दो
अभी है बिपदा भारी
 घर में ही राखी मना लेंगे |
 अगले बर्ष  का इंतज़ार रहेगा
 तभी अरमां पूर्ण करेंगे
 यह है कठिन समस्या
 इससे क्या घबराना |
 हर वर्ष यही त्योंहार होगा
 हम होंगे  भाई रहेंगे
पहली राखी भेट चढ़ेगी प्रभू को 
इसबार वंचित रह् जाएगा भाई |
पर इससे ही संतोष करेंगे
 घर में रह कर
 मन को समझालेंगे 
बच्चों को बहला लेंगे |
अन्य विकल्प नहीं  है कोई
 मन को शांत रखने का
पर समय की मांग है यह
 इससे पीछे नहीं हटेंगे |
आशा
  

31 जुलाई, 2020

जैसा दिखता वैसा होता नहीं


लागलपेट नहीं  कोई
ना  दुराव छिपाव कहीं  
झूट प्रपंच से रहता दूर
मन महकता चन्दन सा |
हर बात सत्य नहीं होती
 आधुनिकता के इस  युग में
 जैसा देखता  वही सोचता
उपयोग न करता बुद्धि का |
जो जैसा दिखता है , नहीं है वैसा 
बाहर से है कुछ और  
अन्दर से है रंग और
रंग भीतर का सर चढ़ बोलता |
मुंह पर मुखोटा लगा कर
दुनिया से तो  बचा रहता
सत्य उजागर होते ही वह
मुंह छिपाए फिरता  |
कटु सत्य सहन नहीं होता
मन विद्रोही यदि होता    
 बगावत का झंडा फहराता
समाज से अलगाव  होता |

आशा

30 जुलाई, 2020

सूर्य की अटखेलियाँ



 सात घोड़ों के रथ पर हो सवार 
 प्रातः से सांध्य बेला तक
आदित्य तुम्हारे रूप अनूप
सुबह तुम्हारी रश्मियाँ अटखेलियाँ करतीं
हरी भरी वादियों में |
कभी धूप कभी छाँव होती
बादलों के संग तुम्हारी  लुका छिपी में
जितना आनंद आता 
शब्दों में बयान  मुश्किल होता |
कभी वृक्षों की ओट से  झांकना
कभी तेज तपता दहकता  रूप दोपहर में
कभी आगमन कभी पलायन
है यह कैसा खेल तुम्हारा |
सांझ होते ही अस्ताचल में जा छिपते
दूर से थाली से दिखते
रात को भी विश्राम न करते  
चाँद की रौशनी है तुमसे  |
है चाँद तुम्हारा ऋणी  
वह यह कभी नहीं  भूलता
  भोर होते ही तारों के संग
 व्योम में कहीं  दुबक जाता |
खेल ही खेल में तुम्हारा
 सारा दिन कहाँ निकल जाता
पर  जो आनंद हमें  आता
 उससे कोई दूर नहीं कर  पाता |
आशा