01 मई, 2021

जन्म दिन मेरा

 


पल पल बीता दिन

 सप्ताह गुजरे महीने बीतें

गुजरे वर्षों ने विदा ली

 फिर आई है सालगिरह  |

बचपन में बहुत उत्साह रहता था 

वर्षगाँठ मनाने का

अम्मा पटले पर बैठातीं

 पूजा की अलमारी से

एक कलावा निकालतीं  |

 उसकी पूजा करके

 एक और गठान लगातीं थीं

मुझे तिलक लगातीं थी

 मुंह मीठा करवातीं थी |

नई फ्राक पहन खुश हो

 मैं सब को प्रणाम करती थी

बाबूजी सर पर हाथ फेर

  बहुत  दुआएं देते थे  |

ऐसी  सालगिरह आए बार बार

इसी प्रकार मनाई जाए

 जैसे जैसे उम्र बढी

  पैर ठोस धरातल पर  पड़े  |

सुख दुःख  झेलते बीते कई वर्ष

 आया अंतिम पड़ाव जीवन का

 कोई उत्साह नहीं रहा अब तो 

सालगिरह मनाने का  |

सोचा  और कितनी सालगिरह

मनेंगी मेरे जीवन की

न कोई उत्साह रहा

न ही आयोजन  की ललक  |

मन ही नहीं होता कुछ करने का 

बाक़ी  दिनों की तरह गुजर जाएगा यह दिन भी

लोग फोन कर शुभकामनाएं देंगे

 और मैं धन्यवाद|

अब ना तो अम्मा बाबूजी रहे

 ना ही मेरा बचपन  

 काटे नहीं कटता समय

 नए ख्याल लिए रचना का जन्म होता है  |

 स्वर्णिम यादों को कविताओं में पिरो कर

 नया रूप देती हूँ

 यादें है मेरा छुपा खजाना

उनमें ही प्रसन्न रहती हूँ  |

आज जीवन जी रही हूँ

 यादों को शब्दों में समेट के

कविता में लिपिबद्ध करके 

नवीन रूप दे कर जीवन्त करके |

आशा  

  

29 अप्रैल, 2021

पुण्यफल ही साथ जाएगा


 

शारीरिक व्यथा

का संज्ञान होता

व्यथित मन हो बेचैन 

कहाँ ठहरता ज्ञात नहीं होता |

केवल अपने  हित की सोचना

आत्म केन्द्रित हो कर रह जाना 

स्वार्थ को जन्म देता 

अकेला व्यक्ति क्या करे |

जीना तो सभी जानते हैं

परहित की चिंता कम ही करते है

मतलब से मित्रता करते 

तभी अक्सर दुखी रहते हैं |

केवल खाना सोना और  

 मौज मस्ती ही

सब कुछ नहीं होते 

अपनी सेवा सब करते 

पर दूसरों से दूर रहते  |

कुछ कार्य ऐसे होते हैं

जिन के  प्रतिफल

दूसरों की सेवा के

फल स्वरुप ही  मिलते हैं |

ईश्वर उन्हें ही

 देता है सहारा

जो दूसरों के लिए

 जीते और मरते हैं |

परहित के लिए किये कार्य

 मन को प्रसन्न करते  हैं

आत्मसंतोष से

मन खिल उठाता है |

जीवन है एक

 पानी के बुलबुले सा

बहुत कम समय

 होता है उसके पास  

कब होगा समाप्त किसे पता |

 पुण्य कार्य किये जाते

जिनके फल और प्रतिफल

मिलते एक ही  साथ |

कब क्या हो नहीं पता 

इसकी समय सीमा

 निर्धारित नहीं

 तभी कहा जाता है

 बहती गंगा में हाथ धो लो |

कुछ पुण्य कर लो

पानी का बुलबुला जब फूटेगा

आत्मा मुक्त हो विचरण करेगी  

पुण्य फल ही साथ जाएगा |

आशा 


28 अप्रैल, 2021

कोरोना की समस्या


 

इस बार भी सूनी सड़कें 

वीरान पड़े घर

 कोई भी हलचल नहीं इधर उधर

इस तरह का अजीब  सन्नाटा

कभी स्वप्न में भी न देखा था |

यह खामोशी  देख लगा ऐसा

जैसे कोई बड़ी दुर्घटना हुई है

 पर मालूम न था

 फिर से कोरोना मुंह फाड़े खडा था

 तभी लौक डाउन हुआ था |

दो टाइम की रोटी भी

 नसीब न होती थी  |

प्रवासी मजदूरों की दुर्गति

 देखी नहीं जा सकती  

बंद हुए  सब पहुँच  मार्ग 

अपने  गाँव घर पहुँचने के

पर उन्हें  बेचैनी थी

 अपने गाँव जाने की

अपनों से मिलने की   

यहाँ उनकी सद्गति 

नहीं हो सकती थी दूसरे प्रदेश में |

देश की आर्थिक व्यव्स्था 

चरमराने लगी है

जनता की  लापरवाही से 

 सावधानी न बरतने से

बनाए गए  नियमों का 

पालन न करने से

 बहुत विकराल रूप 

लिया है महामारी ने |

अभी तक नियंतरण नहीं  है

 इसकी रोक थाम में

अफवाहों की सीमा नहीं है

 इसके  निदान के लिए

हर बात का विरोध कियी जाता है

चाहे टीकाकरण हो या दवाएं |

 ईश्वर न जाने किस बात की

 सजा दे रहा है

जाने कब इससे छुटकारा मिलेगा

यह कठिन समय कैसे गुजरेगा

कुछ कहा नहीं जा सकता |

आशा

 

27 अप्रैल, 2021

एक दृश्य मनोरम

 


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नींद भरी अखियों से  देखा

हरी भरी धरती को रंग बदलते

मोर नाचता देखा पंख फैला  

झांकी सजती बहुरंगी पंखों से |

समा होता  बहुत रंगीन

जब कलकल निनाद  करता निर्झर

ऊपर से नीचे गिरता झरना  

नन्हीं जल की बूंदे बिखेरता |

धरा झूमती फुहारों  से होती तरबतर

सध्यस्नाना युवती की तरह

काकुल  चूमती जिसका मुखमंडल

स्याह बादल घिर घिर आते

आँखों का  काजल बन जाते |

डाली पर बैठे  पक्षी करते किलोल

व्योम में उड़ते पक्षी हो स्वतंत्र

चुहल बाजी करते उड़ते ऊपर नीचे

स्वस्थ स्पर्धा है उनका शगल  |

बागों में रंगबिरंगे पुष्प भी पीछे न हटते

मंद हवा के  झोंको के संग झूमते

तितली भ्रमर भी साथ  देते उनका

भ्रमर गीत गाते मधुर स्वर में |

सूर्य किरणे अपनी बाहें फैलाए आतीं

 धरती को लेना चाहतीं अपने आगोश में

उनकी कुनकुनी धूप जब पड़ती वृक्षों पर

ओस की  बूंदे ले  लेती विदा फूलों से |

आशा

 

 

 

 

26 अप्रैल, 2021

महामारी का रूप भयावह

 



                       

                         
          



                     अब तो बात फैल गई 

खुद के वश में कुछ न रहा 

कोविद कोविद मत कर बन्दे 

यह है उपज अपनी ही लापरवाई की |

जब भी कोई बात बताई जाती

सिरे से नकारा जाता उसको

जब जोर जबरदस्ती की जाती

पुलिस से  झूमाझटकी होती |

उन्हें  क्षति पहुंचाई जाती

इतना तक विचार नहीं होता

दिशा निर्देश होते है पालनार्थ

जनता की भलाई के लिए |

क्या है आवश्यक विरोध नियमों का

 हर उस बात का विरोध करना

जो किसी ने सुझाई हो

 सरकार को देश हित के लिए |

इतनी सुविधाएं देने पर भी  

नाकारा सरकार है कहा जाता

सरकार विरोधी नारे लगा

वातावरण दूषित किया जाता |

इससे हानि किसको होती

सरकार तो सजा नहीं पाती

केवल आर्थिक तंगी में फंसती जाती 

महामारी का रूप भयावह 

देख रूह काँप जाती |

अपनों को  गंवा कर दुःख झेलती 

आम जनता ही उलझनों में 

 फँस कर रह जाती |

आशा 

25 अप्रैल, 2021

हाइकु



 ·                                                              1-कोरोना भय

इतना गहरा है

मन में पैठा

 

2-चैन किसी का

मन में समागया

बाहर नहीं

 

3-थके व्यक्ति

आँखें नम आँसू से

व्यथा न कही

 

4-सागर जल

प्यास न बुझे खारा

आंसुओं जेसा

 

5-था बीता कल

स्वर्णिम यादों भरा

लौट न पाया


6-मन अशांत 

खोज रहा सुकून 

चंद पलों का 


७-जीने की राह 

है बहुत कठिन 

चला न जाए 


८-पीड़ित मन 

दुख से भरा रहा 

जान न पाया 


९- मन मुदित 

किस कारण से है 

ना  पहचाना 

 

आशा 

तिल तिल मिटी हस्ती मेरी


तिल तिल कर मिटी हस्ती मेरी 

कभी इस पर विचार न किया

जब तक सीमा पार न हुई

तरह तरह की अफवाएं न उड़ी|

रोज सुबह होते ही

कोई  अफवाह सर उठाती

किये रहती बाजार गर्म उस दिन का

सुन व्यंग बाण मन आहत होने लगता  |

 कभी रोती सिसकती सोचती किसी को क्या लाभ

 दूसरों  की जिन्दगी में ताकाझाँकी  करने का

मिर्च मसाला मिला  चटपटी चाट बना कर

अनर्गल बातें फैलाने का  |

सूरज पश्चिम से तो उगेगा नहीं

ना ही पूर्व में अस्त होगा

दिन में रात का एहसास कभी न होगा

 ना ही   पूरनमासी को  अधेरी रात दिखेगी |

अपनी समस्याओं से कब मुक्ति मिलेगी 

इस तक का मुझा एह्सास नहीं हुआ अब तक

 खुद की समस्याओं में  ऎसी उलझी मैं 

 निदान उनका न कर पाई और तिल तिल मिटती गई |

यही एक कमी है मुझमें

हर बात किसी से सांझा करने की चाह में

कुपात्र या सुपात्र नहीं दिखाई देता

दिल खोल कर सब बातों को सांझा करती हूँ |

यहीं मात खाती हूँ तिलतिल मिटती जाती हूँ

फिर अपना खोया हुआ सम्मान अस्तित्व में  खोजती हूँ

अब तक तो वह हवा होगया कैसे मिलेगा कहाँ मिलेगा

भूलना होगा मेरा भी अस्तित्व कभी था बीते कल में |

आशा