19 दिसंबर, 2021

आत्मकथा पुष्प की




 दिन डाली पर झूल बिताया 

रात भर सोया चैन से 

सुबह  ओस से नहाया 

हुआ मुग्ध  अपने रूप रंग पर|

हुआ  जब समय डाल से बिछुड़ने का 

माली ने सजाया  सवारा

  मेरे श्वेत लाल  पुष्प गुच्छों को 

प्यार से दुलराया  फिर विदा किया |

अब मिला स्थान मुझे 

   गुलदस्ते के एक कौने में  

जो  गया एक हाथ से दूसरे  में  

पर मुझे सराहना कोई न भूला 

   महिमाँ  मंडन खूब  हुआ मेरा 

गर्व   हुआ अपने आप पर  |

कड़ी धुप सहन की फिर भी न मुरझाया 

किया सूर्य किरणों  से मुकाबला 

बचने में  खुद को सक्षम पाया 

मेरा मन बल्लियों उछला |

मैंने  माली का  धन्यवाद किया 

जिसने प्यार से पाला पोसा 

मुझे सक्षम बनाया

 अपने पैरों पर खड़ा किया |

 मुझे यहीं जीने का

 सच्चा  आनन्द मिला 

अपनी क्षमता जान सका   

खुद को पहचान सका |

जब  देखा शहीदों की अर्थी पर  सजा खुद को 

मन में   देश भक्ति जाग्रत हुई   

मेरा सही उपयोग देख  

मुझे  फिर से  बहुत  गर्व   हुआ |

आशा 






18 दिसंबर, 2021

महिमा अधूरी रह जाती


                                  प्रभु की  महिमा अधूरी रह जाती 

बिना चुने हुए अल्फाजों के

गीत तो गाए जाते पर

 बिना धुन और लय ताल के |

सतही यह गीत संगीत ताल

दिल से जब शब्द न निकले

सभी दिखावे से लगते

जब मन को न छू पाते |

खिलती कलियों का नेह निमंत्रण

 फिर भी आकर्षित करता

फूलों का रंग अपनी ओर खीचना चाहता

और मैं खिचता चला जाता वहां |

मुझे आभास ही  नहीं होता कब

 सुगंध के सहारे मैं पहुंचता वहां 

 इस दृश्य का आनंद लेने  |

फुलों पर उड़ते भौंरे और तितलियाँ

नाचते थिरकते  मोरऔर मोरनी संग 

ताल में तैरते श्वेत बकुल और सारस  

अपनी ओर करते आकृष्ट मुझे 

समा रंगीन होता उस बगिया का |

रंगबिरंगे परिधान में सजा बचपन

दौड़ लगाता जब हरे भरे मैदान में  

तरह तरह की स्वर लहरी गूंजती

अपनी ओर आकृष्ट करतीं मुझे |

 मन चाहता कुछ देर  बैठूं यहां   

जब हाथों में हो कैनवास ,कूची 

 और विविध रंगों का खजाना

दृश्य को उकेर कर सजालूँ अपने उर में |

कुछ और की चाह नहीं है  

ये पल यदि ठहर  जाएं

भर लेता  अपनी बाहों में

जीवन को सार्थक कर लेता |

चाहर पूरी  हो जाती मेरी 

फिर तुम्हारी महिमा गाता

मधुर स्वर लय  और  ताल में

मन खुश हो नाचने लगता | 

आशा 

17 दिसंबर, 2021

रिश्तों की पहचान



कभी अपना दिल टटोलाना

क्या उससे कभी कोई

गलती हुई ही नहीं

 वह कभी पशेमा हुआ ही नहीं |

 अपने तक ही सीमित रहा

किसी और का दुःख न बाँट सका

प्यार है किस चिड़िया का नाम

खुद उसे पहचान न सका |

सतही रिश्तों से खोखला हुआ

उनकी गहराई तक न पहुँच पाया

उसे किसी का अपनापन न भाया

सतही रिश्तों को समझ दर किनारे किया |

कितने रिश्ते निभाए जा सकते है

यह भी कभी सोचा नहीं

या सभी को सतही समझा

उन्हें खुद से दूर किया |

पर एक बात तो स्पष्ट हुई

रिश्तों के बिना जीवन फीका लगता

बेरंग जीवन होता जाता

खालीपन आ जाता नन्हें से दिल में |

यह अभाव कैसे पट पाता

सोचा का विषय हुआ

फिर से पलट कर देखोगे

तब समझ पाओगे इनकी अहमियत |

रिश्ते हैं जीवन के

अभिन्न अंग जान जाओगे

इनके बिना जीवन अधूरा

पहचान जाओगे |

आशा

16 दिसंबर, 2021

जीवन कैसा हो


 


हंस कर काटें पल दो पल

जीवन में और रखा क्या है

जिन्दगी की राह भरी है कंटकों से

 बिना चुभे रह नहीं सकते |

किसी का नेह भी

लगता है खारा नमक सा

किसी के कटु वचन भी

मीठे लगते शहद से |

  है यह  कैसी विडम्बना

मेरी समझ से परे है

जीवन हुआ है एक रस

उसमें जहर भरा है |

कभी खुशियों की तमन्ना थी जहां 

हुई  काफूर वह भी कहीं  

बरसों बाद उसके दर्शन हुए 

 सुकून मिला है मन को  |

वृन्दावन में मोहन की बाँसुरी

राधा रानी का नृत्य संगीत

गलियों में दूध दही की महक

पहुँचने लगी है ग्वालवालों  तक |

शायद जीवन खुश रंग हो जाए

फिर से उसमें बहार आए

यही चाह है मन की

कुछ और अधिक की चाह नहीं |

आशा 

 

 

 

 

  

खुले पट मनमंदिर के


                  खुले पट मन मंदिर के

कौन झाँक रहा उनमें से

कभी ख्याल आता कहीं  

 उसका  मनमीत तो नहीं |

बड़ी राह देखी उसकी

 रहा इन्तजार उसी का अब तक

 राह देखना समाप्त हुआ अब 

और समय सामान्य हुआ है | 

है मनमौजी अलमस्त वह

 फिक्र नहीं पालता किसी की

कब कहाँ जाने का मन बना लेता

कोई नहीं जानता चिंता में डूबा रहता |

जिन्दगी के वे क्षण लौट न पाए  

 द्वार खुले रहते थे उसकी बाट जोहने में

 मन को क्लेश होता रहता था

 उसके इन्तजार में |

जाने कब राह देखना आदत में बदला

 यह तक  याद नहीं अब तो

निगाहें द्वार पर लगी रहतीं हैं 

 एक टक राह देखने में |

आशा 

          

14 दिसंबर, 2021

हाइकु (मौसम सर्दी का )


                                        खोली खिड़की

झांक कर  देखा था

आदित्य को ही

 

दूर से आई

आवाज किधर से

चहके पक्षी

 

पेड़ की डाली

हिलती है जोर से

वायु  सी  डोले

  

ठंडा मौसम

आगाज पक्षियों का

सरस लगा

 

 धूप आ गई

रश्मियाँ पसरी  हैं

पत्तियों पर

 

मन ने चाहा

धूप सेकूँ प्रातःकी

 आँगन में हूँ  


हों गर्म वस्त्र  

 ढांके तन को यदि   

सर्दी बचाएं 


ऋतु जाड़े की 

गरमागर्म चाय 

 मजा और है 


कभी सोचना 

दुनिया चाँद पर  

वर्तमान में 


धुंद  ही धुंद 

फैली चारों ओर है 

हाथ न सूझे  


आशा 






 

13 दिसंबर, 2021

महामारी की दहशत


 

संजीवनी बूटी कोई न होती

 समय लगता बारम्बार 

बीमारी से बच  कर निकलने में 

  दवाई का प्रभाव  देखने में |

वह कोई जादू की पुड़िया तो नहीं

कि बुखार भाग जाएगा

उसको देखते ही

 छूमंतर हो जाएगा |

इस दवा का असर तो होता

पर समय बहुत लेता

फिर भी पूर्ण स्वस्थ न हो पाता 

इन सब से उलझनें बढ़ती ही हैं|

दिन रात एक ही रट रहती

दवा से कोई लाभ न हुआ

कोई दूसरी दवा  लाओ

 इसका हल निकालो |

इस महामारी से

 जीवन में सुकून का ह्रास हुआ है

जितनी भी सतर्कता रखी

बीमारी का रूप और भयावय होता गया |

बारम्बार एक ही विचार

मन में कौंधता रहा  

क्या पहले ऐसी बीमारी की

 कोई जगह न थी जन जीवन में |

बीमारी तब भी होतीं थीं 

 लोग भी परम धाम जाते  थे पर

इतना महिमा मंडन किसी बीमारी का

 कभी न होता  था |

 अब तो महामारी की चर्चा से भी

  मन उचटने लगा है

अनजानी दहशत से

मन में विद्रुप भरा है |

विकट समस्या है ऎसी  कि

 थमने का नाम नहीं लेती

जितना भी सोचो

 उलझन बढ़ती ही जाती  |

आशा