05 जनवरी, 2022

मन क्या सोचता


                                                                  कोरा  कागज़

कलम और स्याही

अब क्या लिखूं

 विचार शून्य हुआ

क्यों है किस कारण

दिल उदास

हुआ जाता बेरंग

जिन्दगी देख

देखे जीवन रंग

 स्थाइत्व नहीं

जीवन में रहता

वह बहता 

 जाना चाहता कभी

यहीं रहना  

सरिता की गति ही  

मंथर होती   

रहती न एकसी

 जब जाना हो    

अधर में झूलता

राह खोजता

अपनी आने वाली

योनी  के लिए

आगे क्या होगा

कहाँ होगा ठिकाना

नहीं जानता |

आशा 


04 जनवरी, 2022

बहस किस किये

 


                                प्रति दिन की  तकरार अकारण

सारी शान्ति भंग कर देती  

जितना भी बच कर चलो  

कहीं न कहीं उलझा ही देती |

जितना प्रपंचों से दूरी रहे

जीवन में शान्ति बनी रहती 

ना तेरी मेरी बहस को जगह मिलती

 उस बहस का लाभ क्या जिसका निष्कर्ष न हो  |

यदि अनावश्यक तर्क कुतर्क हों  

समय की बर्वादी होती 

               मन की शान्ति भंग हो जाती                                                            किसी कार्य में मन नहीं लगता |

 आजादी बहस की किसने दी तुम्हें

यदि दी भी  तब यह नहीं बताया क्या

 किस बात पर हो बहस और किस हद तक  

हर बात पर बहस शोभा नहीं देती |

 खुले मंच पर बहस का अपना ही आनंद होता

 अकारथ वाद संवाद शोर में  परिवर्तित होता

  जब यह हद भी पार होती  अपशब्दों का प्रयोग होता  

इसे कोई भी समझदारी नहीं समझता |

मन संतप्त होता यह है कैसा प्रजातंत्र

लोक लाज ताख में रखकर खुलकर

 अपशब्दों का प्रयोग किया जाता

बड़े छोटों की गरिमा रह जाती किसी कौने में |

आशा

प्रभु वंदन


 

वीणा वादिनी

 वर दे ध्यान तेरा 

कमलासनी  

 

सिंह वाहनी

ऊंचा भवन तेरा

कैसे पहुंचूं

 

मैं मीरा नहीं

केवल आराधना

उद्देश्य मेरा

 

 चाहिए मुझे

तुम्हारा उपकार

 अनजाने में

 

हे महावीर

की अरदास तेरी

करो सफल

 

भवसागर

पार लगाते चलो

 मस्तक झुके

 

 

परमात्मा का

सर पे  हाथ होना

 सौभाग्य मेरा


मुरली वाले 

मोहा तुमने मुझे 

मैं वारी जाऊं 


भोले भंडारी 

है त्रिशूल हाथ में  

शीश पे गंगा 

 

आशा करती 

भक्ति में डूबी रही 

सुख तो मिले  


आशा   

03 जनवरी, 2022

पीछे पलट कर न देखना




 

चलते चलो कदम बढ़ाओ

राह में  रुकना नहीं

अनवरत चलो उत्साह से  

पीछे पलट कर न देखना  |

जब तुमने कुछ किया ही नहीं

फिर मन को भय कैसा

खुद पर आत्म बल

और विश्वास रखो |

जब भी कोई गलत काम करते हो

खुद का मन ही तुम्हें कोसता है

ईश्वर का दण्ड अपने आप ही मिलता है

प्रभु सब की निगरानी करता  |

कोई पुरूस्कार तुरंत नहीं मिलती

 लिख जाता है भाग्य में

 आवश्यक हो  तभी मिलता 

 पुरूस्कार की आहट होती रहती |

खुद के पाप पुन्यों का निर्णय

होता है यहीं इस लोक में

जन्म से खाली हाथ आए हो

अब खाली हाथ ही जाओगे |

साथ कुछ न ले जाओगे

अच्छे बुरे कर्मों का लेखा जोखा

  है परमेश्वर के पास 

जाओगे स्वर्ग या नरक में उसे सब पता |

02 जनवरी, 2022

मन खिन्न हुआ


तुम दीपक मिट्टी के बने 

मैं बाती तुम्हारी सहचरी

जन्म जन्म की साथी

मेरा साथ स्नेह वायू का

तुमको लगता प्यारा परिवार |

 तुम अकेले क्या कर लेते

बिना हमारे साथ के

फिर भी कोई महत्व न देते

क्या यह गलत नहीं ?

हमारी भी चाहत है

कोई हमें भी मान दे

आदर सम्मान दे

 तुम्हारे साथ में |

कभी यही सोच

मन को ठेस पहुंचाता

इतनी तंगदिल

मैं हुई कैसे ?

मन में ख्याल आता

क्या हमारा कोई कर्तव्य नहीं

अधिकार कैसे बड़ा हुआ कर्तव्य से

मन खिन्न हो जाता थोथे उद्गारों से 

अपने तुच्छ विचारों से  |

आशा 

 

01 जनवरी, 2022

आज का भारत


 

 जंगल में दंगल हुआ

वर्चस्व की छिड़ी लड़ाईं

सब ने अपने पक्ष रखे    

 एक भी सही ढंग से

रख न सका अपने पक्ष को |

यही हाल है आज  

भारत में प्रजातंत्र का

हर व्यक्ति खुद को नेता कहता 

बड़ी बड़ी बातें करता |

जिसमें हो दम ख़म  

उसका ही अनुसरण करता 

खुद का कोई नियम धर्म नहीं

ना ही कोइ विचार धारा|

खुद का कोई सोच नहीं 

दो पल्लों की तराजू में लटका 

यही सोचता रहता 

इधर जाऊं या उस ओर |

कहीं भी ईमानदारी नहीं 

सब अपने घर भरने में लगे हैं

परोपकार का दिखावा करते 

पर मन में बरक्कत नहीं |

टेबल ऊपर से पाक साफ 

नीचे से लेन देन चलता 

भीतर से उसे

 खोखला कर देता  |

चंद लोगों के पास ही 

 धन की भरी तिजोरी है 

आम आदमी उलझा है  

दो जून की रोटी में | 

बेरोजगारी ने सर उठाया है 

एक ऑफिस से दूसरे में

युवा मारे मारे फिरते है  

कोई आय का स्रोत नहीं 

जिसके सहारे जी पाएं  |

जब कोई ठौर भीं न  दीखता

घिर जाते बुरी संगत में 

जब नशे में झूमते घर आते 

आए दिन  घरेलू हिंसा दोहराते |

आशा 

आशा 

भुवनभास्कर तुम्हारा आना


 

चुपके चुपके आना तुम्हारा

वृक्षों के पीछे  से झांकना 

हे भुवन भास्कर तब रूप तुम्हारा

होता विशिष्ट मन मोहक |

यही रूप देखने को लालाईत

रहता सारा जन मानस

बड़े जतन से करते  पूजन 

तुम्हें  जल  करते अर्पण |

यही रूप आँखों में बसा रहता

हमारे मन को सक्षम बनाता

करता हमें ऊर्जा प्रदान 

समस्त दैनिक कार्यों के लिए |

प्रातः से शाम तक व्यस्त रहते

शाम होते ही तुम जाना चाहते

 होता आसमा सुनहरा लाल    

धीमीं गति से छिपते छिपाते जाते|

 तुम दिखते थाली जैसे 

  होता समा रंगीन अस्ताचल का    

   विहंगम दृष्टि जब डालते  

उड़ती चिड़ियों का कलरव होता|

 वे लौटतीं अपने बसेरों में 

व्याकुल अपने बच्चों से मिलने  

ये दृश्य बहुत मनोहर होते  

दिल चाहता यहीं रम जाऊं|

 हर दिन यही नजारे  देखूं

खुशहाल जिन्दगी का करू अनुसरण 

इस नियमित जीवन क्रम को 

 अपनी जिन्दगी में उतारूं|

आशा