कितने दिन बीत गये अब तो ,
भारत को आज़ाद हुए ,
फिर भी हम न समझ पाये ,
कि क्या कर्तव्य हमारे हैं ,
अधिकार सभी चाहे हमने ,
जिस हद तक जा सके गये ,
रोज-रोज बसों को तोड़ा ,
और चक्का जाम किया,
लाठी खाई, घूँसे खाये ,
पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा ,
नेता हमने ऐसे खोजे ,
जो खुद को भी न समझ पाये ,
लोक सभा में जूते चप्पल ,
उनसे से भी न वे बच पाये ,
माइक अक्सर टूटा करते ,
व्यवधान सदा ही होते हैं ,
जब आता प्रश्न अधिकारों का ,
सभी एक जुट होते हैं ,
जब जब यह सब देखा हमने ,
शर्मसार हम होने लगे ,
कैसे नेता चुने गए हैं ,
यह प्रश्न मन में उठने लगे ,
बच्चे इससे क्या पायेंगे ,
केवल अधिकार ही जतालायेंगे ,
जब कर्तव्य सामने होगा ,
उससे वे बचना चाहेंगे ,
अधिकारों कि सूची लम्बी ,
चाहे जैसे उनको पायें ,
कर्तव्य अगर कोई हो उनका ,
उसे सदा ही दूर भगायें ,
आज तक हम विकासशील हैं ,
विकसित देशों से दूर बहुत ,
नव स्वतंत्र देशों से भी पिछड़े ,
हम जहाँ से चले थे वहीं अटके ,
फिर भी कर्तव्य बोध से बचते रहे ,
अपना सोच न बदल पाये ,
हम में से सबने यदि ,
एक कर्तव्य भी चुना होता
हम भी विकसित हो जाते ,
भारत विकसित देश कहाता |
आशा
23 जनवरी, 2010
20 जनवरी, 2010
आत्म दग्धा
माँ के बिना बीता बचपन
केवल रहा पिता का साया
बाबा को डर लगता था
कैसे बड़ी सुमन होगी
चिंता वह करता था
सोच कर हो व्यथित अक्सर दुखी हो जाता था !
कैसे हुआ अजब संजोग
बड़ी बुआ के कहने से
बूढ़े से मेरा ब्याह रचाया
वृद्ध पति रूखा व्यवहार
न कोई ममता न कोई माया
जलती रोटी देख तवे पर
उसको बहुत गुस्सा आया
जलती लकड़ी से मुझे जलाया !
तब तन तो मेरा झुलसा ही
मन ने भी हाहाकार मचाया
मरना भी स्वीकार नहीं था
जीवन भी जीना ना चाहा
मरने जीने की उलझन ने
मुझे अधिक बिंदास बनाया !
जब बड़ी हुई थोड़ी मैं
तन भी भटका मन भी अटका
चाहा साथ किसी ऐसे का
हाथ पकड़ जो साथ ले चले !
फिर से मैंने धोखा खाया
बिन ब्याही माँ बनी जब
इसी समाज ने ठुकराया !
कुछ समय जब बीत गया
फूट गया मन का छाला
जैसे तैसे शुरू किया जीवन
एक और से ब्याह रचाया !
ज़िन्दगी फिर पटरी पर आई
मैंने पत्नी धर्म निभाया
एक दिवस वह गया काम पर
मेरी सौतन ले आया !
मन विद्रूप से भर-भर आया
नफरत ने मन में पैर जमाया
अब खुद ही खुद से लड़ती हूँ
क्या मै ही गलती करती हूँ !
क्या मै ही गलती करती हूँ !
वह सौतन रास नहीं आई
मुझको फूटी आँख नही भाई
बालबाल फिर कर्ज में डूबी
घर चलाना कठिन हो गया
वह कायर घर से दूर हो गया !
कैसे पालूँ कैसे पोसूँ
इन छोटे-छोटे बच्चों को
कैसे घर का कर्ज उतारूँ
नहीं राह कोई दीखती
बढ़े कर्ज और भूखे बच्चे
सारे धागे लगने लगे कच्चे !
ऐसे में इक ठोला आया
उसने यह अहसास दिलाया
बहुत सहज है , बहुत सरल है
थोड़ा है जो क़र्ज उतर ही जायेगा
ठोले से मैंने प्यार बढ़ाया
फिर से मैंने धोखा खाया
वह तो बड़ा सयाना निकला
भँवर जाल में मुझे फँसाया
उसने मेरा चेक भुनाया !
अब तिल-तिल कर मैं मरती हूँ
खुद ही से नफरत करती हूँ
पर मन के भीतर छुपी सुमन
अक्सर यह प्रश्न उठाती है
मैंने क्या यह गलत किया
और मेरी क्या गलती है ?
जिसने चाहा मुझको लूटा
मेरा जीवन बर्बाद किया !
वे सब तो दूध के धुले रहे
बस मैं ही हर क्षण पिसती हूँ
जब भी जिधर से निकलती हूँ
मुझ पर उँगली उठती है
हर पल के ताने अनजाने
मुझ में नफरत भरते हैं !
मुझ में नफरत भरते हैं !
आशा
18 जनवरी, 2010
एक दुलहन
वह सकुचाती और शरमाती ,
धीमे-धीमे कदम बढ़ाती ,
पीले हरेगलीचे पर जब ,
पड़ते महावरी कदम उसके,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
वह रूकती कभी ठिठक जाती ,
दूधिया रोशनी जब पड़ती उस पर ,
अपने में ही सिमट जाती ,
तब वह लगती वीर बहूटी सी ,
झुकी-झुकी प्यारी चितवन ,
उसको और विशिष्ट बनाती ,
मुस्कान कभी होंठों पर आती ,
या सकुचा कर वह रह जाती ,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
झीना सा अवगुंठन उसका ,
जिसमें से झाँका उसका रूप ,
लाल रंग की साड़ी उसकी ,
दुगना करती रूप अनूप ,
जैसे ही कुछ हलचल होती ,
वह छुईमुई सी हो जाती ,
तब मुझे अविराम कहीं ,
वीर बहूटी याद आती !
आशा
धीमे-धीमे कदम बढ़ाती ,
पीले हरेगलीचे पर जब ,
पड़ते महावरी कदम उसके,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
वह रूकती कभी ठिठक जाती ,
दूधिया रोशनी जब पड़ती उस पर ,
अपने में ही सिमट जाती ,
तब वह लगती वीर बहूटी सी ,
झुकी-झुकी प्यारी चितवन ,
उसको और विशिष्ट बनाती ,
मुस्कान कभी होंठों पर आती ,
या सकुचा कर वह रह जाती ,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
झीना सा अवगुंठन उसका ,
जिसमें से झाँका उसका रूप ,
लाल रंग की साड़ी उसकी ,
दुगना करती रूप अनूप ,
जैसे ही कुछ हलचल होती ,
वह छुईमुई सी हो जाती ,
तब मुझे अविराम कहीं ,
वीर बहूटी याद आती !
आशा
17 जनवरी, 2010
सपने
मैं जो चाहूँ जैसे चाहूँ
सपने में साकार करूँ
बचपन की याद समेटे
खेलूँ कूदूँ हँसती जाऊँ |
कभी बनूँ नन्हीं गुड़िया
माँ को रो रो याद करूँ
सपने भी सच्चे होते हैं
मैं कैसे तुमको समझाऊँ |
रोज नए अवतार धरूँ
सपनों की रानी बन कर
तुमसे रूठूँ या मन जाऊँ
या कभी पेड़ पर चढ़ जाऊँ |
दौड़ धूप और कूदाफाँदी
सहज भाव से कर पाऊँ
सपनों में विचरण करूँ
उनमें ही में खोती जाऊँ|
पानी में उतरूँ या तैरूँ
अगले क्षण पार उतर जाऊँ
जो मंदिर दूर दिखा मुझको
उस तक आज पहुँच पाऊँ |
कभी खोज में व्यस्त रहूँ
या कोई पहेली सुलझाऊँ
किसी विशाल मंच पर चढ़ कर
भाषण दूं स्वयं पर इतराऊँ |
जो कुछ नया मिला मुझको
उस तक पहुँच उसे सहेजूँ
सपने भी सच्चे होते हैं
यह कैसे तुमको समझाऊँ |
मन चाहा रूप धर सपने में
स्वप्नों की वादी में विचरूँ
फूलों से सजूँ हवा में बहूँ
सपने भी सच्चे लगते हैं
यह कैसे तुमको समझाऊँ |
ये चाहत पूरी करते हैं
इच्छा को पंख लगाते हैं
अपनों से कभी मिलाते
गैरों को दूर भगाते हैं
बड़ी असंभव बातों का
आसान हल सुझाते हैं |
है मुश्किल याद रखना उन्हें
वे कभी-कभी तो आते हैं
अपने सारे सपने
मुझको बहुत सुहाते हैं |
आशा
खेलूँ कूदूँ हँसती जाऊँ |
कभी बनूँ नन्हीं गुड़िया
माँ को रो रो याद करूँ
सपने भी सच्चे होते हैं
मैं कैसे तुमको समझाऊँ |
रोज नए अवतार धरूँ
सपनों की रानी बन कर
तुमसे रूठूँ या मन जाऊँ
या कभी पेड़ पर चढ़ जाऊँ |
दौड़ धूप और कूदाफाँदी
सहज भाव से कर पाऊँ
सपनों में विचरण करूँ
उनमें ही में खोती जाऊँ|
पानी में उतरूँ या तैरूँ
अगले क्षण पार उतर जाऊँ
जो मंदिर दूर दिखा मुझको
उस तक आज पहुँच पाऊँ |
कभी खोज में व्यस्त रहूँ
या कोई पहेली सुलझाऊँ
किसी विशाल मंच पर चढ़ कर
भाषण दूं स्वयं पर इतराऊँ |
जो कुछ नया मिला मुझको
उस तक पहुँच उसे सहेजूँ
सपने भी सच्चे होते हैं
यह कैसे तुमको समझाऊँ |
मन चाहा रूप धर सपने में
स्वप्नों की वादी में विचरूँ
फूलों से सजूँ हवा में बहूँ
सपने भी सच्चे लगते हैं
यह कैसे तुमको समझाऊँ |
ये चाहत पूरी करते हैं
इच्छा को पंख लगाते हैं
अपनों से कभी मिलाते
गैरों को दूर भगाते हैं
बड़ी असंभव बातों का
आसान हल सुझाते हैं |
है मुश्किल याद रखना उन्हें
वे कभी-कभी तो आते हैं
अपने सारे सपने
मुझको बहुत सुहाते हैं |
आशा
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