इस अजनवी शहर में ,
जब रखे थे कदम ,
मुझे कुछ नया नहीं लगा था ,
जानते हो क्यूँ ,
तब तुम मेरे साथ थे ,
था अटूट बंधन विश्वास का ,
सब कुछ पीछे छोड़ आई थी ,
साथ जीने मरने की,
कसमें भी खाई थीं ,
पर थी मैं गलत ,
तुम्हें समझ नहीं पाई ,
केवल सतही व्यवहार को ही,
सब कुछ जान बैठी ,
तुम इतना बदल जाओगे ,
आते ही भटक जाओगे ,
मुझ से दूर होते जाओगे
कभी सोचा न था ,
तुम पर आस्था कर बैठी ,
अपना सर्वस्व लुटा बैठी ,
हूं बर्बादी के कगार पर,
ना धन ना कोई वैभव ,
बहुत हैरान हूं ,
परेशान हूं ,
शर्मिंदगी अपने लिए ,
मन में समेटे बैठी हूं ,
अब तुम गैर लगते हो ,
पास होते हुए भी,
अपने नहीं लगते ,
शहर अजनवी लगता है ,
हूं मैं एक रिक्त पड़ा मकान ,
जिस पर अनाधिकार ,
कब्जा जमाए बैठे हो |
आशा
18 सितंबर, 2010
17 सितंबर, 2010
एक कवि ऐसा भी
जब भी कुछ लिखता है ,
उसे सुनाना चाहता है ,
कुछ प्रोत्साहन चाहता है ,
पर कोई श्रोता नहीं मिलता ,
जब तक सुना नहीं लेता ,
उसे चैन नहीं आता ,
कोई भूल से फँस जाए ,
कविता सुनना भी ना चाहे ,
बार बार उसे रोक कर,
कई बहाने खोज खोज कर ,
कविता उसे सुनाता है ,
तभी चैन पाता है ,
भूले से यदि मंच पर ,
ध्वनिविस्तारक हाथ में आजाए ,
चाहे श्रोताओं का शोर हो ,
या तालियों कि गड़गड़ाहट,
कुछ अधिक जोश में आ जाता है ,
कविता पर कविता सुनाता है ,
अपने लेखन पर मुग्ध होता ,
कविसम्मेलन कि समाप्ति पर ,
पंडाल खाली देख सोचता,
अभी भीड़ आएगी उसे बधाई देने ,
पर ऐसा कुछ नहीं होता ,
केवल एक पहलवान वहां है ,
उससे प्रश्न करता है ,
कैसा लगा कविसम्मेलन ,
और मेरा कविता पाठ ,
वह तो जैसा था सो था ,
मैं उसे ढूँढ रहा हं ,
जिसने तुम्हें बुलाया था ,
वह आज भी आशान्वित है ,
कहीं से तो बुलावा आएगा ,
कोई उसे सराहेगा |
आशा
उसे सुनाना चाहता है ,
कुछ प्रोत्साहन चाहता है ,
पर कोई श्रोता नहीं मिलता ,
जब तक सुना नहीं लेता ,
उसे चैन नहीं आता ,
कोई भूल से फँस जाए ,
कविता सुनना भी ना चाहे ,
बार बार उसे रोक कर,
कई बहाने खोज खोज कर ,
कविता उसे सुनाता है ,
तभी चैन पाता है ,
भूले से यदि मंच पर ,
ध्वनिविस्तारक हाथ में आजाए ,
चाहे श्रोताओं का शोर हो ,
या तालियों कि गड़गड़ाहट,
कुछ अधिक जोश में आ जाता है ,
कविता पर कविता सुनाता है ,
अपने लेखन पर मुग्ध होता ,
कविसम्मेलन कि समाप्ति पर ,
पंडाल खाली देख सोचता,
अभी भीड़ आएगी उसे बधाई देने ,
पर ऐसा कुछ नहीं होता ,
केवल एक पहलवान वहां है ,
उससे प्रश्न करता है ,
कैसा लगा कविसम्मेलन ,
और मेरा कविता पाठ ,
वह तो जैसा था सो था ,
मैं उसे ढूँढ रहा हं ,
जिसने तुम्हें बुलाया था ,
वह आज भी आशान्वित है ,
कहीं से तो बुलावा आएगा ,
कोई उसे सराहेगा |
आशा
16 सितंबर, 2010
बहुत वेदना होती है ,
बहुत वेदना होती है ,
जब कोई बिछुड जाता है,
सदा के लिए चला जाता है ,
बस रह जाती हैं यादें ,
हर क्षण याद आता है ,
मन व्यथित कर जाता है ,
उसका भोला पन ,
और चंचल चितवन ,
इधर उधर थिरकते रहना ,
जब भी पास से गुजरे ,
धीरे से पीछे आना ,
अपने इर्द गिर्द ही पाना ,,
अनगिनत झलकियां उसकी ,
मस्तिष्क पटल पर छा जाती हैं .,
बार बार रुला जाती हैं ,
हर आंसू श्रद्धान्जली बनता है ,
अंजुली भर फूल बनता है ,
उस पर चढा दिया जाता है ,
वह बहुत याद आता है ,
उसकी अदाओं की,
याद भर बाकी रह गई है ,
वह तो शायद भूल गया हो ,
हम उसे भुला नहीं पाते ,
हर पल उसके पीछे ,
साये कि तरह ,
भागना चाहते हैं ,
पर मंजिल तक,
पहुच नहीं पाते ,
वह कहीं शून्य मैं,
विलीन हो गया है ,
हमसे दूर बहुत दूर,
चला गया है |
आशा
जब कोई बिछुड जाता है,
सदा के लिए चला जाता है ,
बस रह जाती हैं यादें ,
हर क्षण याद आता है ,
मन व्यथित कर जाता है ,
उसका भोला पन ,
और चंचल चितवन ,
इधर उधर थिरकते रहना ,
जब भी पास से गुजरे ,
धीरे से पीछे आना ,
अपने इर्द गिर्द ही पाना ,,
अनगिनत झलकियां उसकी ,
मस्तिष्क पटल पर छा जाती हैं .,
बार बार रुला जाती हैं ,
हर आंसू श्रद्धान्जली बनता है ,
अंजुली भर फूल बनता है ,
उस पर चढा दिया जाता है ,
वह बहुत याद आता है ,
उसकी अदाओं की,
याद भर बाकी रह गई है ,
वह तो शायद भूल गया हो ,
हम उसे भुला नहीं पाते ,
हर पल उसके पीछे ,
साये कि तरह ,
भागना चाहते हैं ,
पर मंजिल तक,
पहुच नहीं पाते ,
वह कहीं शून्य मैं,
विलीन हो गया है ,
हमसे दूर बहुत दूर,
चला गया है |
आशा
14 सितंबर, 2010
यह तो नियति है मेरी
जलना और जलाना है प्रकृति मेरी ,
है आधार मेरे जीवन का ,
मैं सब के काम आती हूं ,
घरों में कल कारखानों में ,
जलती हूं सहयोग करती हूं ,
कभी कष्टों का कारण ,
भी हो जाती हूं ,
हवा और गर्मी ,
सदा मुझे उकसाते हैं ,
वे दौनों हैं बैरी मेरे ,
सोते से जगाते हैं ,
जंगल में हो रगड,
यदि सूखी लकडियों की ,
या शुष्क घास में हो घर्षण ,
मैं सोते से जग जाती हूं ,
घघकती हूं ,उग्र हो जाती हूं ,
होता तवाही पर विराम कठिन ,
जब मुझे बुझाया जाता है ,
ह्रदय से गुबार निकलता है ,
गहरे काले भूरे रंग का,
धुँआ निकलने लगता है ,
घुटन जो छिपी थी मन में ,
जैसे ही बाहर आती है ,
करती हूं शान्ति का अनुभव ,
पानी बर्फ और ठंडी बयार
हैं अन्तरंग मित्र मेरे,
पा कर साथ इनका ,
कहीं दुबक कर सो जाती हूं ,
जब तक उकसाया नहीं जाता ,
मैं नहीं धधकती ,
कोई नुकसान नहीं करती ,
यह तो नियति है मेरी ,
सृष्टि ने जिसे जैसा स्वभाव दिया,
थोड़ा परिवर्तन हो सकता है ,
पर बदलाव मूल प्रवृत्ति में ,
कभी संभव होता नहीं ,
विधाता ने बनाया जिसको जैसा ,
वह वैसा ही रहता है |
आशा
है आधार मेरे जीवन का ,
मैं सब के काम आती हूं ,
घरों में कल कारखानों में ,
जलती हूं सहयोग करती हूं ,
कभी कष्टों का कारण ,
भी हो जाती हूं ,
हवा और गर्मी ,
सदा मुझे उकसाते हैं ,
वे दौनों हैं बैरी मेरे ,
सोते से जगाते हैं ,
जंगल में हो रगड,
यदि सूखी लकडियों की ,
या शुष्क घास में हो घर्षण ,
मैं सोते से जग जाती हूं ,
घघकती हूं ,उग्र हो जाती हूं ,
होता तवाही पर विराम कठिन ,
जब मुझे बुझाया जाता है ,
ह्रदय से गुबार निकलता है ,
गहरे काले भूरे रंग का,
धुँआ निकलने लगता है ,
घुटन जो छिपी थी मन में ,
जैसे ही बाहर आती है ,
करती हूं शान्ति का अनुभव ,
पानी बर्फ और ठंडी बयार
हैं अन्तरंग मित्र मेरे,
पा कर साथ इनका ,
कहीं दुबक कर सो जाती हूं ,
जब तक उकसाया नहीं जाता ,
मैं नहीं धधकती ,
कोई नुकसान नहीं करती ,
यह तो नियति है मेरी ,
सृष्टि ने जिसे जैसा स्वभाव दिया,
थोड़ा परिवर्तन हो सकता है ,
पर बदलाव मूल प्रवृत्ति में ,
कभी संभव होता नहीं ,
विधाता ने बनाया जिसको जैसा ,
वह वैसा ही रहता है |
आशा
12 सितंबर, 2010
पिंजरे में बंद एक पक्षी
कभी स्वतंत्र विचरण करता था ,
चाहे जहां उड़ता फिरता था ,
जीने की चाह लिए एक पक्षी ,
जब पिंजरे में कैद हुआ था ,
बहुत पंख फड़फड़ाए थे ,
खुले व्योम में उड़ने के लिए ,
मन चाहा जीवन जीने के लिए ,
अपनों से मिलने के लिए ,
अस्तित्व अक्षुण्य रखने के लिए ,
पर सारे सपने बिखर गए ,
हो कर इस पिंजरे में बंद ,
मन ने यह बंधन भी,
स्वीकार कर लिया ,
फिर जब भी पिंजरे का द्वार खुला ,
बाहर जाने का मन न किया ,
शायद भय घर कर गया था ,
बाहर रहती असुरक्षा का ,
पर कुछ समय बाद ,
एक रस जीवन जी कर ,
मन में हलचल होने लगी ,
जब दृष्टि पड़ी उसकी,
अम्बर में विचरते पक्षियों पर ,
स्वतंत्र होने की लालसा ,
बल वती पुनः होने लगी ,
भय का कोहरा छटने लगा ,
ऊर्जा का आभास होने लगा ,
हों चाहे जितनी सुविधाएं ,
और बना हो सोने का ,
पर है तो आखिर पिंजरा ही ,
स्वतंत्रता की कीमत पर ,
क्या लाभ यहाँ रहने का ,
अब समय बर्बाद न कर के ,
बंधक जीवन से मुक्ति पा ,
नीलाम्बर में उड़ना चाहे ,
नए नए आयाम चुने ,
उनमे अपना स्थान बनाए ,
जैसे ही पिंजरे का द्वार खुला ,
बिना समय बर्बाद किये ,
उसने तेज उड़ान भरी ,
पास के वृक्ष की डाली पर ,
बैठ स्वतंत्रता की खुशी में ,
एक मीठी सी तान भरी |
आशा
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