04 दिसंबर, 2019

हालात






हालात ---


  समय के साथ 
  बदलते  रहते   हैं हालात
इंसान वही रहता है
 बस  हालात बदल जाते हैं |
बचपन में जब  था  
 आश्रित माता पिता पर  
हर कार्य के लिए निर्भर
 हुआ करता था  उन पर |
वय  के साथ बढ़ी
 जब से आत्मनिर्भरता
बदला सोच का दायरा
 हर बात में परिवर्तन आया |
कभी जो अत्यंत  प्रिय हुआ करते थे
 हुई दूरियां उनसे
अधिक प्रिय गैर लगने लगे 
अब अपने हुए पराए |
बहुत सोचा विचारा 
 पर कारण तक पहुँच न पाया
 समझ ना पाया ऐसा हुआ क्या ?
क्या  किशोरावस्था हावी हुई ?
स्वभाव में उग्रता आई
 अपनों की सलाह रास न आई
यौवन आते ही बढ़ा आकर्षण 
बड़े प्रलोभनों ने भरमाया |
माया मोह में फंसता गया
 मन स्थिर  ना रह पाया
जीवन के अंतिम पड़ाव पर
 मन मस्तिष्क  में बैराग्य आया|
 हर कार्य ईश्वर पर छोड़ा
 मन के  अन्दर झांका
 अपने आप को 
 आत्मनिरीक्षण करता पाया |
   थामाँ आस्था का आँचल 
 कसौटी  पर जब  परखा खुदको
समय के साथ वह खुद नहीं बदलता 
हालात बदल देते उसको |
                              आशा

02 दिसंबर, 2019

सत्य अनुरागी

मिलते हज़ारों में 
दो चार अनुयायी सत्य के 
सत्यप्रेमी यदा कदा ही मिल पाते 
वे पीछे मुड़ कर नहीं देखते !
सदाचरण में होते लिप्त 
सद्गुणियों से शिक्षा ले 
उनका ही अनुसरण करते 
होते प्रशंसा के पात्र ! 
लेकिन असत्य प्रेमियों की भी 
इस जगत में कमी नहीं 
अवगुणों की माला पहने 
शीश तक न झुकाते 
अधिक उछल कर चले 
वैसे ही उनके मित्र मिलते 
लाज नहीं आती उन्हें 
किसी भी कुकृत्य में !
भीड़ अनुयाइयों की 
चतुरंगी सेना सी बढ़ती 
कब कहाँ वार करेगी 
जानती नहीं 
उस राह पर क्या होगा 
उसका अंजाम 
इतना भी पहचानती नहीं !
दुविधा में मन है विचलित 
सोचता है किधर जाए 
दे सत्य का साथ या 
असत्य की सेना से जुड़ जाए 
जीवन सुख से बीते 
या दुखों की दूकान लगे 
ज़िंदगी तो कट ही जाती है 
किसी एक राह पर बढ़ती जाती है  
परिणाम जो भी हो 
वर्तमान की सरिता के बहाव में 
कैसी भी समस्या हो 
उनसे निपट लेती है ! 
आशा सक्सेना 

01 दिसंबर, 2019

फलसफा प्रजातंत्र का

बंद ठण्डे कमरों में बैठी सरकार
नीति निर्धारित करती 
पालनार्थ आदेश पारित करती 
पर अर्थ का अनर्थ ही होता 
मंहगाई सर चढ़ बोलती 
नीति जनता तक जब पहुँचती 
अधिभार लिए होती 
हर बार भाव बढ़ जाते 
या वस्तु अनुपलब्ध होती 
पर यह जद्दोजहद केवल 
आम आदमी तक ही सीमित होती 
नीति निर्धारकों को 
छू तक नहीं पाती 
धनी और धनी हो जाते 
निर्धन ठगे से रह जाते 
बीच वाले मज़े लेते ! 
न तो दुःख ही बाँटते 
न दर्द की दवा ही देते 
ये नीति नियम किसलिए और 
किसके लिए बनते हैं 
आज तक समझ न आया ! 
प्रजातंत्र का फलसफा 
कोई समझ न पाया ! 
शायद इसीलिये किसीने कहा 
पहले वाले दिन बहुत अच्छे थे 
वर्तमान मन को न भाया !
आशा