01 फ़रवरी, 2013
31 जनवरी, 2013
साजिश किसी की
खतरा सर पर मंडराया
दिन में स्वप्न नजर आया
किरच किरच हो बिखरा
वजूद उसका शीशे सा
न जाने कब दरका
अक्स उसका आईने
सा
अहसास न हुआ
टुकड़े कब हुए
यहाँ वहाँ बिखरे
दर्द नहीं जाना
स्वप्न में खोया रहा
स्वप्न में खोया रहा
जब हुई चुभन गहरे तक
दूभर हुआ चलना
रक्त रंजित फर्श पर
तब भी नादाँ
पहचान नहीं पाया
पहचान नहीं पाया
वह थी साजिश किसी की
दिल को दुखाने की
उसको फंसाने की |
28 जनवरी, 2013
शब्द जाल
अंतःकरण से शब्द निकले
चुने बुने और फैलाए
दिए नए आयाम उन्हें
और जाल बुनता गया
थम न सका प्रवाह
एक जखीरा बनता गया
सम्यक दृष्टि से देखा
नया रूप नजर आया
जिसने जैसा सोचा
वैसा ही अर्थ निकल पाया
पहले भाव
शून्य से थे
धीरे धीरे प्रखर हुए
सार्थकता का बोध हुआ
उत्साह द्विगुणित हुआ
अदभुद सा अहसास लिए
नया करने का मन बना
कई भ्रांतियां मन में थीं
समाधान उनका हुआ
है यह विधा ही ऐसी
दिन रात व्यस्तता रहती
समय ठहर सा जाता
मन उसी में रमा रहता
है प्रभाव उन शब्दों का
जो जुडने को मचलते
बाक्यों में बदलते
बाक्यों में बदलते
उनसे अनजाने में
कई रचनाएं बनतीं
कविता से कविता बनती
आवृत्ति विचारों की होती
स्वतः ही
मन खिचता
फिर से फँस जाता
शब्दों के जाल में |
आशा
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