कहाँ रहे कैसे दिन बीते
इसकी सुरती नहीं उनको
भीग रहे उस फुहार में
आकंठ लिप्त भ्रष्टाचार में |
जब से बैठे कुर्सी पर
उससे ही चिपक कर रह गए
धन दौलत में ऐसे डूबे
सारे आदर्श धरे रह गए |
वे भूल गए वे क्या थे
नैतिक मूल्य थे क्या उनके
सब कुछ पीछे छोड़ दिया
घड़ा पाप का भरता गया |
भ्रष्टाचार के दलदल से
कोई न बाहर आ पाया
है यह एक ऐसा कीटाणु
समूचा देश निगल रहा |
जाने कितने मुद्दे हैं
पहले से हल करने को
उन पर तो ध्यान दिया नहीं
बढ़ावा दिया भ्रष्टाचार को |
वह अमर बेल सा छाता गया
सारा सुख हर ले गया
पूरा पेड़ सूखने लगा
बरबादी का कहर ढहा |
एक युग नायक ने
अपना विरोध दर्ज किया
जन जागरण मुखर हुआ |
देश में हलचल हुई
जागृति की लहर चली
कुछ तो प्रभाव हुआ इसका
सोते शासन को हिला दिया |
यदि विरोध नहीं करते
यह कैंसर सा बढ़ता जाता
कोई इलाज काम न करता
भयावह अंत नजर आता |
सभी तो लिप्त हैं इस में
लगे हुए हैं घर भरने में
देश की चिंता कौन करे
नाम उजागर कौन करे|
चक्रव्यूह रचने वालों से
या दलाल हवाला वालों से
जाने कब मुक्ति मिलेगी
भ्रष्टाचार के दानव से|
आशा