मेरी आस्था
 तुम्हारा वरद हस्त
यही पाया है मैंने
बड़े प्रयत्नों से |
सफलता भी पाई है इसमें 
किन्तु एक सीमा तक
जब भी चाहा  वही पाया 
मैंने बिना किसी बाधा के 
फिर भी संतुष्टि नहीं मिल् पाई 
न जाने कहाँ  कमी रही अरदास में |
मन को टटोला आत्ममंथन किया 
फिर भी तुमसे दूरी रही
यह हुआ कैसे
कोई सुराग न मिला
 सोच में डूबी रही 
मन में विद्रूप हुआ
कहाँ भूल हुई खोज न पाई |
यही उलझने
मुझे सताती रहीं 
कोई निराकरण
नहीं निकला |
मुझे तरसाता रहा
रहने लगी उदास
थकी थकी सी
जीवन बेरंग हुआ |
अब चाह नहीं
और जीने की
मन बुझा बुझा सा रहा
है यही वर्तमान मेरा |
आशा    
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