19 फ़रवरी, 2010

अनुभूति


तुम्हारे मेरे बीच कुछ तो ऐसा है
जो हम एक डोर से बँधे हैं
क्या है वह कभी सोचा है ?
अहसास स्नेह का ममता का
या अटूट विश्वास
जिससे हम बँधे हैं |
साँसों की गिनती यदि करना चाहें
जीवन हर पल क्षय होता है
पर फिर भी अटूट विश्वास
लाता करीब हम दोनों को
हर पल यह भाव उभरता है
अहसास स्नेह का पलता है
पर बढ़ता स्नेह
अटूट विश्वास पर ही तो पलता है |
कभी सफलता हाथ आई
कभी निराशा रंग लाई
जीवन के उतार चढ़ावों को
हर रोज सहन किया हमने
इस पर भी यह अहसास उभरता है
जीवन जीने का अंदाज यही होता है |
तुम्हारे मेरे बीच कोई तो ऐसा है
जो हमें बहुत गहराई से
अपने में सहेजता है
और इस बंधन को
कुछ अधिक प्रगाढ़ बनाता है |
कई राज खुले अनजाने में
मन चाही बातों तक आने में
फिर भी न कोई अपघात हुआ
और अधिक अपनेपन का
अहसास पास खींच लाया |
बीते दिन पीछे छूट गए
नये आयाम चुने हमने
अलग विचार भिन्न आदतें
व रहने का अंदाज जुदा
फिर भी हम एक डोर से बँधे हैं
सफल जीवन की इक मिसाल बने हैं
और अधिक विश्वास से भरे हैं
यदि होता आकलन जीवन का
हम परवान चढ़े हैं
तुम में कुछ तो ऐसा है
जो हम एक डोर से बँधे है |

आशा

17 फ़रवरी, 2010

केमिस्ट्री जीवन की

केमिस्ट्री जीवन की नहीं आसान
बहुत मुश्किल है
कैसे रखूँ इसे याद बहुत मुश्किल है
ताल मेल का कठिन समीकरण
बार-बार हल करना चाहा
नहीं हुआ आसान
करना संतुलित समीकरण को
बहुत मुश्किल है
फिर दोष मढ़ा किसी गलती पर
इस या उस का कन्फ्यूजन
या जीवन का सम्मोहन
बनने वाले की संरचना
या उसका संवर्धन
शायद कुछ बन भी गया कभी
उसका उपयोग किया न किया
एक फार्मूला रट भी लिया
फिर अगले को याद किया
कई-कई बार टटोला मन को
पर मन ने सभी को नकार दिया
बहुत मुश्किल है
केमिस्ट्री जीवन की बहुत कठिन
उस पर कैसे अभिमान करूँ
नहीं समझ आता मुझको
कैसे उसे आसान करूँ
सबसे कठिन फलसफा जीवन का
केमिस्ट्री का विषय निकला
कैसे करूँ इसे याद बहुत मुश्किल है
सबसे पहले पढ़ना था इसे
कोई समस्या हल न हुई
और केमिस्ट्री जीवन की
असंतुलित समीकरण बनी रही |

आशा

16 फ़रवरी, 2010

खोता बचपन

आया महीना फागुन का
मौसम रंगीन होने लगा
ठंडक भी कम हो गयी
सडकों पर रौनक होने लगी |
बच्चों ने जताया हक अपना
वे गली आबाद करने लगे
फिर भी चिंता परीक्षा की
मन ही मन में सताने लगी |
जैसे ही आई आवाज कोई
मन उसी ओर जाने लगा
वे भूले कॉपी और किताब
बन गया विकेट ईंटों का |
हुई प्रारम्भ बौलिंग और फील्डिंग
रनों ने भी गति पकड़ी
चोकों ,छक्को की झड़ी लगी |
पर आई माँ की आवाज
तुम जल्दी चलो अब घर में
चित्त लगाओ अब पढ़ने में
दुखी मन से जब घर पहुंचे
बस्ते अपने सजाने लगे |
पास पार्क के कौने में
आम पर बैठी कोयल
कुहूक कर मन खीच रही
कच्ची कैरी से लदा पेड़
मन वहाँ जाने का हुआ
जैसे ही एक अमिया तोड़ी
माली की वर्जना सहनी पड़ी |
दौड़े भागे घर को आए
फिर से किताब में खोए
गुजिया,पपड़ी की खुशबू ने
पहुचा दिया अब चौके में
माँ मुझको गुजिया दे दो
बार बार जिद करने लगे |
माँ को बहुत गुस्सा आया
बोली त्यौहार अभी नही आया
होली की जब पूजा होगी
तभी इसे खा पाओगे |
होली पर यदि रंग खेला
सर्दी और जुखाम झेला
परीक्षा में भी पिछड जाओगे
गुजिया ,पपड़ी भी न पाओगे |
इस परीक्षा के झमेले में
पुस्तकों के मेले में
मन त्यौहार भी न मना पाया
पर देख रंगे रंगाऐ लोगों को
मुझको तो बहुत मजा आया |
जब मुझको देखा मस्ती में
पापा ने आँख दिखा पूंछा
क्या भूल गए कल है परीक्षा
होली तो हर साल मनेगी
रंगों की महफिल भी सजेगी
कम नंबर पर सदा खलेगे
जीवन को बर्बाद करेंगे |
फिर छोड़ कर सब कुछ
अपने कमरे में कैद हुए
केवल किताबों में घुसने लगे
कल की तैयारी करने लगे
अपना बचपन खोने लगे |
आशा



15 फ़रवरी, 2010

अनकहा सच


कुछ हमने कहा कुछ तुमने सुना
पर अनकहा बहुत कुछ छूट गया |
न कोई संबोधन न कोई रिश्ता
न तोल सका भावों को मन के |
मन में क्या था न जता पाया
न कोई उपहार दिला पाया |
छिप-छिप कर बात कही मन की
शब्दों में उसे न सजा पाया |
सम्वाद रहित अनजाना रिश्ता
आँखों से भी न जता पाया |
न लिया न दिया कभी कुछ भी
यह कमी सदा ही खलती रही |
क्या उपहार जरूरी है
यह तो एक कमजोरी है |
सबसे अलग हट कर सोचा होता
मन की आँखों से देखा होता
मेरा अंतर टटोला होता
दो बोल प्यार के बोले होते
तुम मुझको पाते निकट अपने|
नए सपने नयनों में पलते
कुछ भी अनकहा न रहा होता |
कोई उपहार लिया न दिया होता
यदि दिल दौलत को चुना होता |

आशा