26 फ़रवरी, 2010

होली














जब चली फागुनी बयार
मन झूम-झूम कर गाने लगा
सुने ढोलक की थाप पर
जब रसिया और फाग
 बार-बार गुनगुनाने लगा |
सरसों फूली टेसू फूला
वन उपवन महका
मदमाता मौसम छाने लगा
मन झूम-झूम लहराने लगा |
अमराई में छाई बहार
कोयल की मीठी तान सुनी
तरह-तरह के फूल खिले
फूलों पर भौरे गुंजन करते |
लाल, हरे और रंग सुनहरे
गौरी की अलकों से खेले
चूड़ी खनकी पायल बहकी
गौरी का मुखड़ा हुआ लाल
जब अपनों का लगा गुलाल
प्यारा सा पाया उपहार
भरने लगा मन में गुमान
 तन मन  को भिगोने लगीं |
रंगों की दुकानें सजीं
गुजिया पपड़ी भी  बनीं
भंग और ठंडाई छनी
सब की होली खूब मनी |

आशा

24 फ़रवरी, 2010

उपेक्षिता

सजे सजाये कमरे में
मैंने उसे उदास देखा
आग्रह से यह पूछ लिया
उसका ह्रदय टटोल लिया
तुम क्यों सहमी सी रहती हो
आखिर ऐसा हुआ क्या है
जो नित्य प्रतारणा सहती हो |
पहले तो वह टाल गयी
फिर जब अपनापन पाया
हिचकी भर-भर कर रोई
मन जब थोड़ा शांत हुआ
अश्रु धार से मुँह धोया
तब उसने अपना मुँह खोला |
सजी धजी इक गुड़िया सी
मैं सब के हाथों में घूम रही
सब चुपचाप सहा मैने
अपने भाव न जता पाई
पर उपेक्षा सह न सकी
बहुत खीज मन में आई
मेरी अपेक्षा मरने लगी
दुःख के कगार तक ले आई |
व्यथा कथा उसकी सुन कर
मन में टीस उभर आई
मैं उसको कुछ न सुझा पाई
मन ही मन आहत हो कर
थके पाँव घर को आई |
ऐसा क्या था जो भेद गया
दिल दौलत दुनिया से मुझको
बहत दूर खींच लाया मुझको
मन ही मन कुरेद गया |
उसमें मैंने खुद को देखा
जीवन के पन्ने खुलने लगे
बीता कल मुझको चुभने लगा
मकड़ी का जाला बुनने लगा
फँस कर मैं उस मकड़ जाल में
अपने को भी न सम्हाल सकी
जो बात कहीं थी अन्तरमें
होंठों तक आ कर रुकने लगी |
मैं भी तो उसके जैसी ही हूँ
कभी गलत और कभी सही
अनेक वर्जनाएं सहती हूँ
फिर किस हक से मैंने
उसका मन छूना चाहा
मन ही मन दुखी हुई अब मैं
क्यूँ मैने छेड़ दिया उसको
उसकी पीड़ा तो की न कम मैंने
अपनी पीड़ा बढ़ा बैठी |

आशा

23 फ़रवरी, 2010

बच्चा एक मजदूर का

पार्क के उस कोने में
रेत के उस ढेर पर,
खेलता बच्चा बड़ा प्यारा लगता है ,
डर क्या है वह नहीं जानता ,
खतरा कैसा है वह नहीं पहचानता ,
वह तो बस इतना जाने ,
हँसना रोना या भूख प्यास .
माँ और बापू उसके ,
सड़क पर करते हैं काम ,
उनके जीवन में नहीं कोई विश्राम ,
बड़ी बहन उसकी चंचल ,
करती है देख रेख उसकी ,
उसे छोड़ देती है अक्सर ,
उसी रेत की ढेरी पर ,
रेती का ढेर फिसलपट्टी बनता अक्सर ,
इसके साथ रिश्ता उसका
नहीं कुछ अनजाना है ,
कभी ऊपर तो कभी नीचे ,
आगे कभी तो कभी पीछे ,
वह हिलता डुलता और खिसकता है ,
मुठ्ठी भर-भर रेत उठा ,
अपने मुँह पर ही मलता है ,
ठंडी रात के पहलू में ,
भाई बहनों को अलग हटा ,
माँ से लिपट कर सोता है ,
सोते-सोते हँसता है ,
या कभी ज़ोर से रोता है ,
माँ थपकी दे उसे सुलाती है ,
गोदी में उसे झुलाती है ,
रात ठंडी उसकी सहेली है ,
ऐसी कई रातें उसने ,
यहीं रह कर तो झेली हैं |
न ठंडक उसे सताती है ,
नज़ाकत पास नहीं आती है ,
पहने आधे अधूरे कपड़े ,
पर टोपा अवश्य लगाता है ,
जैसे ही होता है प्रभात ,
वही रेत का ढेर उसे ,
अपनी ओर खींच लाता है ,
वह हँसता और लुभाता है |

आशा