उपन्यास सम्राट श्री
प्रेमचन्द (1880-1936) का असली नाम धनपत राय
श्रीवास्तव था |हिन्दी और उर्दू दौनों ही भाषा पर उनका सामान अधिकार था |अपने लेखन के लिए दौनों ही
भाषाओं का उपयोग किया प्रारम्भ में उर्दू नें लिखा फिर बाद में हिन्दी में
|साहित्य में यथार्थवादी परम्परा की नीव रखी |उन्हें हिन्दी कहानी का पितामह माना
गया है |उस समय की परिस्थितियों का इतना सजीव वर्णन उनकी रचनाओं में है कि आज भी
उनका उतना ही महत्त्व है जो पहले था |३३ वर्ष के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की
ऐसी विरासत छोड़ गए जो गुणात्मक दृष्टि से अमूल्य है |अपने साहित्य में जीवन के
विभिन्न रूपों को बहुत मनोयोग से उकेरा है |उन्हें शत शत नमन |
यह छोटी सी रचना है
:-
जिसने जन्म लिया
उसे तो जाना ही है
लंबा सफर जीवन का
जो पीछे छूट गया
आने वाली पीढ़ी के
लिए
खजाने सा छोड़ जाना है
सशक्त लेखिनी के उदगारों से
गहराई तक रची बसी
कालजई रचनाएँ
हैं महत्त्व पूर्ण
आज भी
बीता कल तो रीत गया
पर वर्तमान में भी
जीवंत उसे कर जाता है |
आशा