14 नवंबर, 2015
12 नवंबर, 2015
रिश्ते कितने किस सीमा तक
आये अकेले इस जग
में
जाना कब है पता
नहीं है
पर अपनाए गए
रिश्तों को
बिना विचारे ढोते ही जाना है
ये रिश्ते बने
कैसे
कहना सरल नहीं है
पर बंधन में बंधते
ही
इनसे बचने की
राह नहीं है
रिश्ते जनम जनम के होते
सात जन्मों तक
निभाने को
कच्चे धागे से
बंधे हैं
है बंधन अटूट फिर भी इनका
जिसे बिना सोचे समझे
जीवन पर्यंत निभाना है
बंद आँखें कर चलते जाना है
रिश्ते कैसे कैसे
कुछ जन्म से
कुछ मान्य या थोपे गए
पर रिश्ते तो रिश्ते हैं
उन्हें परवान चढ़ाना है
रिश्ते कैसे कैसे
कुछ जन्म से
कुछ मान्य या थोपे गए
पर रिश्ते तो रिश्ते हैं
उन्हें परवान चढ़ाना है
कुछ रिश्ते अनचाहे
अनजाने में बनते हैं
शायद यही दर्द के रिश्ते हैं
शायद यही दर्द के रिश्ते हैं
लव से कुछ बिना
कहे
मन की भाषा समझते
हैं
जब जन्में थे
अकेले ही
उनमें क्यूं बंध
जाना है
हर रिश्ते की है
अपनी सीमा
पर अपेक्षाएं भी कम
नहीं
कितनी किसे
प्राथमिकता दें
यह भी सुनिश्चित
नहीं
प्राथमिकता का
क्रम
यदि बिगड़ जाए
दरारें दिल में
बढ़ती जाएं
कई सोच उभरने
लगते हैं
हो रिश्तों की
दूकान क्यूं
दिखावे की भरमार
क्यूं
जब अकेले ही आये
थे
अकेले ही जाना है
|
आशा
10 नवंबर, 2015
दीप जलाओ
हो मुदित दीपक जलाओ
प्यार से उपहार लाओ
प्यार बांटो प्यार
पाओ
इस क्षण भंगुर जीवन
में
यही पल मधुर लगते
हैं
इन्हें जियो
जितना चाहो
बाती कपास की स्नेह
से भरपूर
अपना स्वत्व भूल स्वयं
जलती है
पर जग जगमग करती
है
उसी भाव को अपनाओ
स्नेह के दीपक
जलाओ
मेल मिलाप भाईचारा
हैं इस पर्व की
विशेषता
मन से इनको अपनाओ
सौहार्द का आग़ाज
कर
तिमिर को दूर
भगाओ
है यह पावन पर्व
रौशनी का
दीप जलाओ दीप
जलाओ
मन का अन्धकार
मिटाओ |
आशा
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