विजय दशमी पर हार्दिक शुभ कामनाएं |लीजिये आज प्रस्तुत है एक व्यंग मंहगाई पर :-
हूँ मैं मंहगाई
अनंत है विस्तार मेरा
एक ओर नियंत्रण हो तो
दूसरी ओर विस्तार होता |
मनुष्य आकंठ डूबा मुझ में
गहन वेदना सहता
फिर भी बच नहीं पाता
मेरे दिए दंशों से |
देख आदमी की विकलता
बेबसी और बेचारगी
दुष्टानन्द अवश्य होता
फिर भी मेरा तोड़ न होता |
हूँ स्वच्छंद स्वेच्छाचारिणी
किसी का बस नहीं चलता
साहस कर यदि उंगली उठाता
कुछ कहने का अवसर पा कर
क्षण भर में कुचला जाता
वह वहीं दब कर रह जाता |
आम आदमी है परेशान
बेहाल मेरी मार से
उसका सोच तक दूषित होता
भ्रष्टाचार के पथ पर चलता
उदर पूर्ति के लिए
अधिक धन की जुगाड़ में |
मैं सहोदरा भ्रष्टाचार की
फिर भी मन उसका अशांत
मेरा छोर
नहीं पाता
मेरे दिए दंशों से बच नहीं प़ता |
आशा