04 मई, 2013

आनंद कुछ और ही होता

तारों भरे आकाश में 
ले ज्योत्सना साथ में 
मयंक चला भ्रमण करने 
अनंत व्योम के विस्तार में 
सभी चांदनी में नहाए 
ज्योतिर्मय हुए 
क्या पृथ्वी क्या आकाश 
पर पास के अभयारण्य में 
यह सब कहाँ 
धने पेड़ों की टहनियां
 आपस में बात करतीं
आपस की होती सुगबुगाहर 
विचित्र सी आवाज से
मन में भय भरती
सांय सांय चलती हवाएं 
आहट किसी अनजान के 
पद चाप की
अदृश्य शक्ति का अहसास करा 
भय दुगुना करती 
कभी छन कर आती रौशनी में 
कोई छाया दिखाई देती 
मन में भय उपजता 
सही राह न दिखाई देती 
एकाएक ठिठकता सोचता 
कहीं यह भ्रम तो नहीं 
साहस कर कदम आगे बढाता 
फिर भी अकेलापन सालता 
काश कोइ साथ होता 
राह तो दिखाता 
चांदनी रात में तब घूमने  का
आनंद कुछ और ही होता |
आशा





02 मई, 2013

बेचैन मन


 सारे पखेरू उड़ गए
हुआ घोंसला खाली
ठूंठ अकेला रह गया
छाई ना हरियाली
आँगन सूना देख
मेरा मन क्यूं घबराए ना
क्यूं गाऊँ मैं गीत
मुझे कुछ भी भाए ना
सभी व्यस्त अपने अपने में
समय का अभाव बताते
रहते अपनी दुनिया में
उनकी ममता जागे ना
मैं अकेली रह गयी
अक्षमता का बोध लिए
पर डूबी माया मोह में
यह बंधन छूटे ना
यह जन्म तो बीत चला
तेरी पनाह में
है अटूट विशवास तुझ पर
पर मन स्थिर ना रह पाता
अभी है यह हाल
आगे न जाने क्या होगा |

30 अप्रैल, 2013

अनुगूंज

जहां देखती हूँ 
वहीं तुझे पाती हूँ 
तेरी गूँज सुनाई देती 
 सृष्टि के कण कण में |
 ऊंची नीची पगडंडी पर 
पहाड़ियों से धिरी वादी में 
बढ़ता कलरव परिंदों का 
मन हुआ गाने का 
उनका साथ निभाने का
जैसे ही स्वर छेड़ा
अपने ही स्वर गूंजे 
प्रत्यावर्तित हुए |
विचारों में खोई आगे बढ़ी
एकांत में बैठ सरिता तट पर 
देखा उर्मियाँ टकराती चट्टान से 
तभी विशिष्ट ध्वनी होती 
कानों में गुंजन करती |
मैंने पाया एक सुअवसर 
प्रकृति के सानिध्य का 
सुना संगीत साथ देते 
कलकल ध्वनि करते जल का |
 तभी दूर से आती ध्वनि 
व्यवधान बनी कर्ण कटु  लगी
टूटी श्रंखला विचारों की
सोचा यह कहाँ से आई |
अनायास बादल गरजे 
बादलों के  गर्जन तर्जन की
टकराई ध्वनि पहाड़ियों से 
हुई प्रत्यावर्तित 
गूँज उसकी तीव्र हुई 
क्या यही अनुगूंज है ?
शब्द नश्वर नहीं होते 
जब भी कुछ कहा जाता 
वे विलीन हो जाते
 किसी निसर्ग में
कहीं न कहीं सुनाई देती 
उनकी अनुगूंज भुवन में 
जिसे हम अनुभव करते 
अनुगूँज जब होती
सत्य जीवन का उजागर होता 
जिसे भौतिक और नश्वर 
जगत न जान पाता |
आशा




28 अप्रैल, 2013

एक बुलबुला

शाम ढले विचरण करता 
जा पहुंचा सरिता तट पर 
वृक्षों की छाँव तले
बहती जल की धारा 
था मौसम बड़ा सुहाना 
मन भी उससे हारा 
वहीं रुका और बैठ गया 
जल में पैर डाल अपने 
अस्ताचल को जाता सूरज 
 अटखेलियाँ जल से  करता 
दृश्य ने ऐसा बांधा 
उठने का मन न हुआ 
सहसा ठहरी दृष्टि 
जल में उठता बुलबुला देख 
पहले था वह नन्हा सा 
फिर बड़ा हुआ और फूट गया 
वह देखता ही रह गया 
वे एक से अनेक हुए 
बहाव के साथ बहे 
थोड़ी दूर  तक गए 
फिर विलीन जल में हुए 
विचारों ने ली करवट 
सिलसिला शुरू हुआ 
जीवन के बिभिन्न पहलुओं  की
सतत चलती प्रक्रिया का 
उसके समापन का 
सृष्टि का यही तो क्रम है 
क्या सजीव क्या निर्जीव में 
उसे लगा खुद का जीवन 
पानी के एक  बुलबुले सा |
आशा