17 मई, 2013

नैसर्गिक कला

प्यारे प्यारे कुछ पखेरू
चहकते फिरते वन में 
पीले हरे  से अलग दीखते
पेड़ों के झुरमुट में
एक विशेषता देखी उनमें 
कभी न दीखते शहरों में |
वर्षा ऋतु आने के पहिले
 नर पक्षी तिनके चुनता 
एक नीड़ बनाने में 
इतना व्यस्त होता 
श्रम की अदभुद मिसाल दीखता |
उस नीड़ की संरचना
 आकर्षित करती
 हर जाने आने वाले को
पेड़ से लटका हुआ
 फिर  भी इतना सुदृढ़ कि 
कोई नष्ट ना कर पाए 
वायु के थपेड़े हों 
या किसी का प्रहार |
एक दिन ले प्रियतमा 
पखेरू आया वहां 
सुखी संसार बसाया अपना
था प्रवेश मार्ग वहां 
संगिनी बाट जोहती 
 झांकती उसमें से 
 अपने प्रिय के आने की |
था एक अद्भुद नगर सा 
कुछ जोड़े रहते थे 
कुछ मकान खाली भी थे 
चूजों की आहट आतीं थीं 
लगते थे धर आवाद |
पर सब पखेरू  उड़ गए 
कुछ अंतराल के बाद
अब वहां कोइ न था 
बस थे  घौंसले रिक्त
फिर भी था अटूट बंधन उनका 
उन वृक्षों की डालियों  से  |








14 मई, 2013

मैं और शब्द

सृष्टि के अनछुए पहलू 
उनमें झांकने की 
जानने की ललक
बारम्बार आकृष्ट करती 
नजदीकिया उससे बढ़तीं 
वहीं का हो रह जाता 
आँचल में उसके 
छिपा रहना चाहता 
भोर का तारा देख 
सुबह का भान होता 
दिन कब कट जाता 
जान न पाता
तारों भरी रात में 
सब लगते विशिष्ट 
कहीं जुगनूं चमकते 
उलूक ध्वनि करते 
चिमगादड़ जतातीं 
अपनी भी उपस्थिति वहां 
जो दृश्य सजोए वहां 
बंद किये आँखों में 
भावनाओं पर ऐसे छाए 
अनेकों रंग नजर आये 
ह्रदय पटल पर हुए साकार 
एकांत पलों में अद्भुद सुकून पा
मन फिर वहीं जाना चाहता 
कल्पना के पंख लगा 
 ऊंची उड़ान भरता 
अनोखे विचार उपजते 
तब शब्द शब्द नहीं रहते 
उनमें ही वे भी रंग जाते 
फिर लिवास नवीन  पहन
सज धज कर नया रूप धर 
सबके समक्ष आते |
आशा






13 मई, 2013

कामवाली बाई

 


शादी के मौसम में
व्यस्त सभी बाई रहतीं
सहन उन्हें करना पड़ता
बिना उनके रहना पड़ता
उफ यह नखरा बाई का
आये दिन होते नागों का
चाहे जब धर बैठ जातीं
नित नए बहाने बनातीं
यदि वेतन की हो कटौती
टाटा कर चली जातीं
 लगता है जैसे हम गरजू हैं
उनके आश्रय में पल रहे हैं
पर कुछ कर नहीं पाते
मन मसोस कर रह जाते |
आशा