14 मई, 2013

मैं और शब्द

सृष्टि के अनछुए पहलू 
उनमें झांकने की 
जानने की ललक
बारम्बार आकृष्ट करती 
नजदीकिया उससे बढ़तीं 
वहीं का हो रह जाता 
आँचल में उसके 
छिपा रहना चाहता 
भोर का तारा देख 
सुबह का भान होता 
दिन कब कट जाता 
जान न पाता
तारों भरी रात में 
सब लगते विशिष्ट 
कहीं जुगनूं चमकते 
उलूक ध्वनि करते 
चिमगादड़ जतातीं 
अपनी भी उपस्थिति वहां 
जो दृश्य सजोए वहां 
बंद किये आँखों में 
भावनाओं पर ऐसे छाए 
अनेकों रंग नजर आये 
ह्रदय पटल पर हुए साकार 
एकांत पलों में अद्भुद सुकून पा
मन फिर वहीं जाना चाहता 
कल्पना के पंख लगा 
 ऊंची उड़ान भरता 
अनोखे विचार उपजते 
तब शब्द शब्द नहीं रहते 
उनमें ही वे भी रंग जाते 
फिर लिवास नवीन  पहन
सज धज कर नया रूप धर 
सबके समक्ष आते |
आशा






7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बढ़गिया आंटी



    सादर

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...आभार्

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  3. यही तो कवि की विशेषता है कि जो कुछ उसके मन को छूता है उसे शब्दों के परिधान में सजा प्रस्तुत कर देता है ! बहुत सुंदर रचना ! वाह !

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  4. बहुत भावमयी प्रस्तुति...

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  5. आप सब को टिप्पणी हेतु धन्यवाद |
    आशा

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