19 मई, 2018

ख्वाब यूं. मचलते हैं








आजकल निगाहों में
 ख्वाब यूं मचलते हैं
यादों का सैलाव सा आता है
उनसे निजात  पाना
आसान नहीं  होता  
जैसे बड़े बेमन से कोर्स की
किताब के पन्ने पलटना
होता कठिन काव्य का प्रेत
निगाहों  की हलचल
इस हद तक बढ़ जाती है
अपलक निहारते रहते हैं
पुरानी यादों में खोए रहते है
सपने तो कई आते है
 पर याद नहीं रहते
कुछ याद रह जाते हैं
कुछ भूल नहीं पाते
नयनों में समाए रहते हैं  
यह तो वही कर सकते हैं
जो दिवा स्वप्न में
रहते व्यस्त
हलचल से यादें
 गहरे पैंठ जातीं हैं
निकलना नहीं चाहतीं
तभी तो आजकल निगाहों में
ख्वाब यूं ही मचलते रहते हैं |
आशा 

16 मई, 2018

वह जन्नत की हूर







एक झलक देखा उसको
मन मोह कर चली गई
सहज सरल पुरनूर चेहरा
जैसे हो चाँद का टुकड़ा
जमाने की बुरी नजर से
उसे महफूज रखते
पर जमीन पर पैर न पड़ते
बड़ा गर्व महसूस करते
अल्लाह की नियामत समझ
उस जन्नत की हूर का
दूर दूर तक चर्चे
उसकी सुन्दर छबि के होते थे
मशहूर हुई नजाकत के लिए
मोहक अदाओं के लिए
पर मद के नशे से कोसों दूर
लेकिन नहीं मगरूर |
आशा

15 मई, 2018

वृक्ष लगाओ पर्यावरण बचाओ


-https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgOEpSUGovCmM6G6XbfP6bzYeYPloY0ftq5unxhd2DzTbpOpCgadMv5sw3QWVce9JkPzX0Fe5amIG_QfLa4VICzrIz-F85Y-hbUlb0GCHvyn7cbanaeCXLmW8FytwU44K9ZizctsDFm6Cux/s320/2-NEW+SUBJECT.jpg
अपने बचपन में खूब की सैर
 हरेभरे जंगल की
वृक्षों की छाँव में तपती दोपहर में
बहुत ठंडक देता था जंगल
ऐसा नहीं कि तब पेड़ काटे न जाते थे 
 पर एक सीमा तक 
कि पर्यावरण संतुलन ना बिगड़े
जैसे जैसे  जनसंख्या  का भार बढ़ा
अंधाधुंध कटाई बढ़ गई
जंगल बंजर भूमि बनने से न बच पाए
मनुष्य अपने स्वार्थ में
 इतना अंधा हो गया कि यह तक भूला
 द्रुत गति से पेड़ काटे तो जा सकते है
 पर एक पेड़ लगाना
  उसे बड़ा करना है कितना मुश्किल
 दूर से एक लकड़हारा आया
 हाथ में लिए कुल्हाड़ी पेड़ काटने के लिए 
प्रकृति नटी ने देख उसे भय से
वृक्ष की ऊंचाई पर पनाह पाई
वह इस अनाचार को सह न सकी 
 नयनों में आंसू भर  आए
गर्मी बेइंतहा बढ़ी पेड़ों कि कटाई से
पंथी बेचारे छाँव को तरसे
यही सब सोच
कुछ लोगों में आया जागरण
बड़े बड़े अभियान चलाए
वृक्ष लगाओ पर्यावरण बचाओ
जागरूक बच्चा तक हो गया
बहुत गंभीर हो कर बोला
कोई अन्य विकल्प तो होगा
 जो इस  वृक्ष का पर्याय हो 
बाक़ी तो कट गए 
इसे हाथ न लगाना
है यह बहुत प्रिय मुझे
यह बढ़ रहा है मेरी तरह 
पनप रहा है धीमी गति से |

आशा

14 मई, 2018

नज़रे इनायत




इक जरासी रात की 
 नज़रे इनायत क्या हुई 
,हम हम न रहे खुद को भूल गए 
वे भावनाओं में इस कदर खोए 

कि परिणाम भी न सोच पाए
नतीजा क्या होगा

 जानने की आवश्यकता न समझी
सुबह हुई व्यस्त कार्यक्रम रोज का

 कहीं ना छूट पाया
हम उस में इतने हुए व्यस्त
रात कहाँ गुजारी यह तक याद न रहा
कितने वादे किये उनसे

 पूरा करना भी भूले |
आशा