सप्ताह गुजरे महीने बीतें 
गुजरे वर्षों ने
विदा ली 
 फिर आई है सालगिरह  |
बचपन में बहुत उत्साह रहता था
वर्षगाँठ मनाने का 
अम्मा पटले पर बैठातीं
 पूजा की अलमारी से 
एक कलावा निकालतीं  |
 उसकी पूजा करके
 एक और गठान लगातीं थीं 
मुझे तिलक लगातीं थी
 मुंह मीठा करवातीं थी |
नई फ्राक पहन खुश हो
 मैं सब को प्रणाम करती थी 
बाबूजी सर पर हाथ
फेर
  बहुत  दुआएं देते थे  |
ऐसी  सालगिरह आए बार बार 
इसी प्रकार मनाई जाए
 जैसे जैसे उम्र बढी
  पैर ठोस धरातल पर  पड़े  |
सुख दुःख  झेलते
बीते कई वर्ष 
 आया अंतिम पड़ाव जीवन का 
कोई उत्साह नहीं रहा अब तो
सोचा  और कितनी सालगिरह 
मनेंगी मेरे जीवन की
न कोई उत्साह रहा 
न ही आयोजन  की ललक  |
मन ही नहीं होता कुछ करने का
बाक़ी दिनों की तरह गुजर जाएगा यह दिन भी
लोग फोन कर शुभकामनाएं देंगे
 और मैं धन्यवाद|
अब ना तो अम्मा बाबूजी
रहे
 ना ही मेरा बचपन  
काटे नहीं कटता समय
नए ख्याल लिए रचना का जन्म होता है |
 नया रूप देती हूँ 
 यादें है मेरा छुपा खजाना 
उनमें ही प्रसन्न
रहती हूँ  |
आज जीवन जी रही हूँ
 यादों को शब्दों में समेट के 
कविता में लिपिबद्ध करके
नवीन रूप दे कर जीवन्त करके |
आशा  





