07 मार्च, 2020

गृहणी

                                    आँगन में तुलसी का बिरवा
सुबह उठते ही जल चढ़ाती जिस पर  
दिया लगाती अगर बत्ती जलाती
  सुगंध से महकाती परिसर |
है वह गृहणी इस घर की
घर के लोगों की सम्रद्धि के लिए
करती यथा संभव  सभी यत्न
महनत से दान धर्म से पीछे न हटती |
 अपनी पीड़ा किसी से न बांटती
 हर कार्य के लिए रहती तत्पार
 मुस्कान से सभी का करती  स्वागत 
लोगों के मुंह से सदा उसकी तारीफ  निकलती |
पर एक ही दुःख उसे सालता 
जिससे रहती अपेक्षा वही कभी  यश न देता
दो बोल मीठे सुनने को मन  तरसता   
 क्या लाभ महिला दिवस पर सम्मान  देने का |
बरसों से यही सिलसिला रहा जारी
बाहर की दुनिया में जब हंसकर निकलती
लोगों की ईर्षा का सामना करती 
  वही जानती है असलियत पहचानती है |
एक दिन की अतिथि बनना है सरल
सभी स्वागत भाषण  करते नहीं थकते
मंच पर हार फूल से स्वागत किसे लगता बुरा 
पर सच है  यही कि वह जहां थी रही वहीं |

आशा

06 मार्च, 2020

होली


रंग बनाया है पलाश के फूलों से  
रंगों की बरसात लिए
 आपसी समभाव लिये
आई होली रंगों की सौगात लिए 
सूखे रंग गालों पर सजे 
 अपनों का प्यार लिए  
फूलों की होली  मथुरा में 
 कान्हां के मंदिर परिसर में 
भक्त  फाग गाते निहारते 
कृष्ण कन्हिया की मूरत को
मन में बसी छबि ऐसी 
जब नयन बंद करते तब भी
अनवरत दिल  में बसी रहती
लठ्ठ मार होली बरसाने की 
 भी कम नहीं होती किसी से 
बड़ी प्रतीक्षा रहती
 इस अवसर की
महिलाएं लंबा घूघट से चहरा ढाके
करतीं प्रहार लठ्ठों से 
 रंगतीं  गहरे रंगों से
 कोई बुरा नहीं मानता 
अवीर गुलाल  लगाने से
गिले शिकवे भूल  लोग
 आपस में गले मिलते
देते बधाइयां
 मिठाइयां बड़े प्रेम से
बैर भाव भूल 
प्रसन्नता से  रंग खेलते
 होली समारोह में 
धर घर जाते प्यार बांटते
रहता इंतज़ार इस त्यौहार का
 बहुत उत्साह से
 रंग भरे टबों में
 डुबकी खिलाने का 
चंग की थाप पर
रसिया गाने का 
होली के  गीतों का
 आनंद है अलग सा 
 भंग की तरंग में झूमते झामते
 होली के  गीत गाते
मस्ती से भरे लोग
 जहाँ  जाते रंग जमाते
बड़ों का आशीष ले
 बचपन की यादें ताजा करते  |

आशा



05 मार्च, 2020

होली के रंग





होली के रंग
 फीके नहीं लगते 
प्रिया के संग 

रंग रसिया 
तुमसे ही मैं हारी 
श्याम बिहारी 

सरस भंग 
चढ़ा नशा इतना 
भूल न पाया 

सनम तुम 
आज न आए तो क्या 
भूल न जाना 

होली आई रे
खेलों रंग वासंती 
अवीर संग

                                                                            आशा

03 मार्च, 2020

आँगन


बदले समय के  साथ में  
बढ़ती जनसंख्या के भार से
बड़े मकानों का चलन न रहा  
रहनसहन का ढंग बदला |
पहले बड़े मकान होते थे
उनमें आँगन होते थे अवश्य
दोपहर में चारपाई डाल महिलाएं
 बुनाई सिलाई करतीं थीं
 धूप का आनंद लेतीं थीं |
अचार चटनी मुरब्बे में धूप लगातीं
गर्मीं में ऊनी कपडे सुखाना 
सम्हाल कर रखना नहीं भूलतीं थीं
आँगन  ही  थी  कर्मस्थली उनकी |
बच्चों के  खेल का मैदान भी वही था  
 रात में चन्दा मांमा को देख कर  खुश होने  को कैसे भूलें
तारों  के संग बातें करना
 मां से  कहानी सुनना    छूटा कभी |
जब कोई तारा टूटता
 मांगी   मुराद पूरी करता
हाथ जोड़    कभी  मन की  मुराद  माँगते
या चाँद पकड़ने के लिए बहुत बेचैन रहते  |
मां थाली में जल भर कर 
चान्द्रमा के   अक्स को  दिखा कर हमें बहलातीं 
फिर थपकी दे कर हमें सुलातीं | 
आज  शहरों के बच्चे रात में
बाहर निकलने से भयाक्रांत होते है
शायद उन्हें यही भय रहता है
 कहीं चाँद उन पर ना  गिर जाए |
कारण समझने में देर न लगी
बढ़ती आबादी ने आँगन सुख से दूर किया है
छोटे मकानों में आँगन की सुविधा कहाँ  
  यादें भर शेष रह गईं है घर के बीच आँगन की | 
आशा 

अभिसारिका




 पलक पसारे बैठी है
 वह तेरे इन्तजार में
हर आहट पर उसे लगता है
कोई और नहीं है  तेरे सिवाय 
हलकी सी दस्तक भी
दिल के  दरवाजे पर जब होती 
 वह बड़ी आशा से देखती है
 तू ही आया है 
मन में विश्वास जगा है
चुना एक फूल गुलाब का
 प्रेम के इजहार के लिए
      काँटों से भय नहीं होता
स्वप्न में लाल  गुलाब देख
 अजब सा सुरूर आया है 
वादे वफ़ा  का नशा
 इस हद तक चढ़ा है कि
उसे पाने कि कोशिश  तमाम हुई है
चर्चे गली गली में सरेआम हो गए
पर उसे इससे कोई आपत्ती नहीं
मन को दिलासा देती है
तेरी महक से पहचान लेती है
आशा

01 मार्च, 2020

अब क्या सोचना


जीवन बढ़ता जाता 
 कन्टकीर्ण मार्ग पर
 अकेले चलने में
 दुःख न होता  फिर भी |
क्यूँ कि आदत सी
 हो गई  अब तो
  सब कुछ  झेलने की
 अकेले  ही  रहने  की  |
कोई नहीं अपना
 सभी गैर लगते हैं
एक निगाह प्यार भरी
 देखने को तरसते हैं |
कुछ  कहने सुनाने  का 
अर्थ नहीं किसी से
ना ही किसी को  हमदर्दी 
मेरे मन को लगी ठेस से |
तब क्यूँ अपना समय
 व्यर्थ  बर्बाब करूँ
नयनों से मोती से 
  अश्कों को  बहाऊँ  |
गिरते पड़ते सम्हलते लक्ष्य  तक
 पहुँच ही जाऊंगी
अभी तो साहस शेष है
 दुःख दर्द को  सहन कर पाउंगी  |
यदि कोई अपना हो तब
 दर्द भी बट जाता है
अपने मन की बात कहने से 
मन हल्का हो जाता है |
 अब कंटक कम  चुभते हैं
 घाव उतने  गहरे नहीं उतरते  
 जितना गैरों का कटु भाषण
 मन विदीर्ण  करता  |
आशा