22 मई, 2010

जंगल की एक रात

मुझे याद है पिकनिक पर जाने का वह दिन ,
जल प्रपात का सौन्दर्य निहारने का वह दिन ,
दिन बीत गया खेलने और मनोरंजन में ,
जैसे ही शाम होने लगी ,
घर की चिंता होने लगी ,
फिर भी सुरमई शाम को जंगल में घूमना ,
तरह-तरह के पक्षी देखना ,
अपने आप में एक करिश्मा था ,
उन्हें देख मन खुशियों से भर जाता था ,
सूखे पत्तों से भरी पगडंडियों पर चलना ,
चरमर-चरमर आवाज़ें सुनना ,
अजीब अहसास कराता था ,
मन धीरे-धीरे गुनगुनाता था ,
शायद हम रास्ता भटक गये थे ,
अपनी मंज़िल से दूर निकल गये थे ,
जब अँधियारा छाने लगा ,
साँय-साँय करता जंगल ,
और जंगली जानवरों का भय ,
हमें विचलित करने लगा ,
भय मन में भरने लगा ,
सामने एक वृक्ष घना था ,
वहाँ रुकें उचित यही था ,
आसमान में झिलमिल करते तारे ,
हमें उस ओर खींच ले गये ,
रात में ठहरने की वजह बन गये ,
नींद कोसों दूर हो गयी ,
बातों ही बातों में ,
जाने कब आधी रात हो गयी ,
एकाएक बादलों ने नभ में ,
उमड़ घुमड़ कर जल बरसाया ,
तेज बारिश ने सब को नहलाया ,
कम्पित तन , घुटनों में सर
जल से सराबोर हम बैठे थे ,
तरह-तरह की आवाजों का
मन में भय समेटे थे ,
फिर से जब बरसात थम गयी ,
तारों की लुकाछिपी शुरू हो गयी ,
शायद वे हम पर हँस रहे थे ,
हमारी बेचारगी पर तरस खा रहे थे ,
इतने में एक तारा टूटा ,
औरआकाश में विलीन होगया ,
हम भी कहीं गुम हो जायेंगे ,
टूटे तारे की तरह खो जायेंगे ,
फिर जाने कब आँख लग गयी ,
पौ फटते ही नींद खुल गयी ,
जब घर की राह नज़र आई ,
घर की ओर दौड़ लगाई ,
जंगल में रात कैसे कटी ,
यह बताना अच्छा लगता है ,
पूरी कहनी सुनाना ,
मन को भाता है ,
भय को पीछे छोड़,
वहाँ फिर से जाने का दिल करता है ,
जंगल में कटी रात कैसे भूल पायेंगे ,
जब भी कभी बात चलेगी ,
हम वही संस्मरण दोहरायेंगे |


आशा

20 मई, 2010

यादें बीते कल की

जब तुम इधर से गुजरती हो ,
पहली वर्षा की फुहार सी लगती हो ,
पुरवइया बयार सी लगती हो ,
तुम मुझे कुछ-कुछ अपनी सी लगती हो |
होंठों पर मधुर मुस्कान लिये ,
कजरारी आँखों में प्यार लिये ,
जब तुम धीमी गति से चलती हो ,
मुझे बहुत प्यारी लगती हो
बचपन में तुम्हारा आना ,
मेरेपास से हँस कर गुजर जाना ,
फूलों से घर को सजाना ,
गुड़ियों का ब्याह रचाना ,
और बारात में हमें बुलाना ,
फिर सब का स्वागत करवाना ,
सब मुझे सपना सा लगता है ,
तब भी तुम्हें देखने का मन करता है ,
अब मैं तम्हें दूर से देखता हूँ ,
क्योंकि अब तुम मेरी
बचपन की दोस्त नहीं हो ,
अब तुम मेरी निगाह में ,
हर बात में , जजबात में
मुझसे बहुत दूर खड़ी हो ,
यह निश्छल प्यार का बंधन है ,
बीते बचपन का अभिनन्दन है ,
कॉलेज में साथ पढ़ते हैं ,
फिर भी दूरी रखते हैं ,
हर शब्द सोच कर कहते हैं ,
शायद मन में यह रहता है ,
कोई गलत अर्थ न लगा पाये
व्यर्थ विवाद ना हो जाये ।
जब तुम भी कहीं चली जाओगी ,
मैं भी कहीं दूर रहूँगा ,
दोनों अजनबी से बन जायेंगे ,
यदि जीवन के किसी मोड़ पर मिले ,
बीते दिन छाया चित्र से नजर आयेंगे ,
यादों के सैलाब उमड़ आयेंगे ,
हम उनमें फिर से खो जायेंगे |


आशा

,

19 मई, 2010

इंतज़ार अभी बाकी है

विरही मन चारों ओर भटकता है ,
हर आहट पर चौंक जाता है ,
शायद वह लौट कर आयेगी ,
इंतज़ार नहीं करवायेगी |
मैं तपता सूरज कभी नहीं था ,
पर शांत कभी न रह पाया ,
मयंक सा शीतल न हो पाया ,
उसे कभी न समझ पाया |
मैं कैसे इतना निष्ठुर निकला ,
ऐसा क्या गलत किया मैंने ,
मुझे भूल गई बिसरा बैठी ,
कहीं और तो नेह न लगा बैठी ?
उसे मेरी याद नहीं आई ,
क्यों मुझे समझ नहीं पाई ,
घंटों मोबाईल पर बातें ,
अक्सर चैटिंग भी करती थी |
वह यह सब कैसे भूल गयी,
बीता कल पीछे छोड गयी ,
मैं दीपक सा जलता ही रहा ,
पर उसे कभी झुलसने न दिया |
मैं ही शायद गलत कहीं हूँ ,
कैसे यह अलगाव सहूँ ,
मन उद्वेलित होता जाये ,
विद्रूप से भरता जाये |
मन का तिलस्म टूट गया ,
वह बैचेनी से भटक रहा ,
मुझ में ही कुछ कमी रह गयी ,
अपना उसे बना न पाया ,
घायल पंछी सा तड़पता रहा ,
ठंडी बयार न दे पाया |
फिर भी हर क्षण ,
उसकी याद सताती है ,
वह चाहे कुछ भी सोचे ,
इंतज़ार अभी तक बाकी है |


आशा

18 मई, 2010

दो किनारे नदिया के

दो किनारे नदिया के ,
होते है कितने बेचारे ,
साथ-साथ चलते हैं सदा ,
फिर भी मिल नहीं पाते ,
संगम को तरस जाते|
ये जन्म और मृत्यु जैसे नहीं होते ,
जो कभी एक न हो पाते ,
वे कभी साथ न चल पाते |
किनारों में है गहरा बंधन ,
यह बंधन नहीं है अनजाना ,
इसको किसीने न जाना ,
वे अलग-अलग तो रहते हैं ,
पर उनमें है गहरा बंधन ,
बंधन सेतु है बहता पानी ,
जिसका कोई नहीं सानी |
देख एक दूसरे को दोनों ,
आगे तो बढ़ते रहते हैं ,
हमराही भी कहलाते हैं ,
आगे बढ़ते हैं अनजानों से ,
चलते जाते बेगानों से ,
शायद हालातों से है समझौता ,
पर है यह समन्वय कैसा ,
समझौते की बात करें क्या ,
वे ख़ुद ही कटते जाते हैं ,
पर राह छोड़ नहीं पाते हैं |
यदि सलिला नहीं होती ,
शायद वे भी नहीं होते ,
अपना अस्तित्व कहाँ खोजते ,
साथ चले थे साथ चल रहे ,
आगे भी साथ निभायेंगे ,
प्रगाढ़ बंध के कारण हैं वे ,
यह कैसे भूल पायेंगे ,
किसी के साथ चलने की,
होती है हर पल चाह ,
शायद यही है जीवन जीने की राह |


आशा

17 मई, 2010

तीन चूहे

तीन चूहे थे |वे अपने आप को बहुत चतुर समझते थे |प़र वे बिल्ली से बहुत डरते थे |हर समय अपने आप को उससे बचाने की कोशिश में लगे रहते थे |एक दिन उनने सोचा की क्यों न वे अपने मकान बना लें रोज रोज का झंझट ही
समाप्त हो जाएगा |
पहले चूहे ताऊं ने अपना मकान कागज का बनाया ,
उसमें रंग बिरंगा दरवाजा लगवाया |
ख़ुद को बहुत सुरक्षित पाया |
दूसरे चूहे ठाऊँ ने एक किला बनवाया,
आसपास की खाई में दूध भरवाया ,
किले में अपने को अधिक सुरक्षित पाया |
तीसरा चूहा दाऊं था ,
वह बहुत असमंजस में था ,
आर्कीटेक्ट से नक्षा बनवाया ,
सीमेंट रेत से घर बनवाया ,
लोहे का दरवाजा लगवाया ,
अन्दर ख़ुद को सुरक्षित पाया |
बिल्ली भी कुछ कम नहीं थी ,
उसने एक तरकीब सोची,
पहुंची पहले ताऊं के घर ,
बोली "बेटा ताऊं ,बेटा ताऊं ,
क्या मैं घर के भीतर आऊं ",
ताऊं बोला " मौसी आज नहीं आना ,
मुझको है बाहर जाना "
पहले तो वह लौट चली ,
पर कुछ सोच लौट पड़ी ,
गुस्से मैं पंजा फैलाया ,
ताकत से घर पर दे मारा ,
कागज का मकान नष्ट हो गया ,
ताऊंबिल्ली का भोजन हो गया |
पेट भर गया जब बिल्ली का ,
उसका मूड ठीक हो गया |
दुसरे दिन बिल्ली देर से उठी ओर इधर उधर घूमने लगी |पर कुछ समय बाद उसे भूख सताने लगी उसको ख्याल आया की क्यों न वह ठाऊं के घर जाए ओर उसे अपना भोजन बनाए |
वह जल्दी से किले तक पहुंची ,
खाई देख हुई भोंच्क्की ,
केसे खाई पार करे ,
ओर किले तक पहुंचे ,
कुछ क्षण तक वह खडी रही,
फिर सारा दूधचट कर गई ,
ओर खाई पार कर गई |
एक छलांग में दीवार फांद कर,
ठाऊं को भी चट कर गई |
बात तीसरे दिन की है |जब बिल्ली को भूख लगी तब वह बेचैन हो रही थी | अब उसे दाऊं की याद आनेलगी |
ओर वह उसके घर की ओर चल दी |
जैसे ही उसने घर देखा ,
लोहे का दरवाजा देखा ,
घूम घूम बाहर से घर देखा ,
कोइ राह नजर न आई ,
उसके मन में उदासी छाई |
फिर भी हिम्मत न हारी,
मीठी आवाज में वह बोली ,
दाऊं दाऊं प्यारेदाऊं ,
"क्या नया घर नहीं दिखलाओगे ,
अपने घर नहीं बुलाओगे ",
दाऊं बहुत सीधा था वह भूल गया कि अपने घर में ही वह बहुत सुरक्षित है |घर दिखाने की लालसा में उसने
लोहे का दरवाजा खोल दिया |
जैसे ही बिल्ली अन्दर आई ,
मुंह से लार उसने टपकाई ,
फुर्ती से कूदी दाऊं पर ,
पंजे में कस कर पकड़ लिया ,
उसे भी पेट के हवाले किया |
सारे मकान खाली रह गये ,
तीनों चूहे नष्ट हो गए ,
बिल्ली मौसी से कोई भी नहीं बच पाया |तीनों की चतुराई बिल्ली के आगे न चल सकी

16 मई, 2010

सोच एक शाम की

शाम को झील के किनारे ,
बेंच पर बैठना अच्छा लगता है ,
हरियाली पास से देखना ,
सपना सा लगता है ,
झिलमिल करते बिजली के खम्भे ,
उनकी पानी में छाया ,
पानी में छोटी-छोटी कश्ती ,
दृश्य मनमोहक लगता है |
धीमी गति की लहरों में ,
अँधेरी रात के पहलू में ,
पानी में पैर डाले रखना ,
जब मन चाहे छप-छप करना ,
जल से नाता अपना रखना ,
मुझको बहुत प्यारा लगता है |
दूर एक छोटा सा मंदिर ,
मन्दिर में एक सुन्दर मूरत ,
रोशनी से भरा हुआ परिसर ,
भक्तों की भीड़ अपार जहाँ पर ,
मधुर ध्वनि घंटों की सुनकर ,
वहाँ पहुँचने का मन करता है |
अनिश्चय की दुविधा मिट जाती है ,
मन अभिमंत्रित हो जाता है ,
जल्दी से वहाँ पहुँच पाऊँ ,
प्रभु चरणों में शीश नवाऊँ ,
भगवत भजन में चित्त लगाऊँ ,
सारी चिंता बिसराऊँ ,
संसार चक्र से मुक्ति पाऊँ |


आशा