वह दिन बहुत सुन्दर दिखता है
जहां बिखरी हों रंगीनियाँ अनेक
पर होता कोसों दूर वास्तविकता से
मन को यही बात सालती है |
मनुष्य क्यों स्वप्नों में जीता है
वास्तविकता से परहेज किस लिए
क्या कठोर धरातल रास नहीं आता
यही सोच सच्चाई से दूरी बढाता |
जब भी जिन्दादिली से जीने की इच्छा होती
कुठाराघात हो जाता अरमानों पर
है यह कैसी विडम्बना किसे दोष दिया जाए
मन को संयत रखना है कठिन |
सीमा का उल्लंघन हो यह भी तो है अनुचित
कितनी वर्जनाएं सहना पड़ती हैं
घर की समाज की और स्वयं के मन की
तब भी तो सही आकलन नहीं हो पाता|
कहावत है आसमान से गिरे खजूर पर अटके
केवल स्वप्नों में जीना है धोखा देना खुद को
क्या नहीं है यह सही तरीका सच्चाई से मुंह मोड़ने का
वही हुआ सफल जिसने ठोस धरती पर पैर रखे |
आशा