दो काकुल मुख मंडल पर
झूमते लहराते
कजरे की धार पैनी कटार से
वार कई बार किया करते
स्मित मुस्कान टिक न पाती
मन के भाव बताती
चहरे पर आई तल्खी
भेद सारे खोल जाती
कोई वार खाली न जाता
घाव गहरे दे जाता
जख्म कहर वरपाते
मन में उत्पात मचाते
तभी होता रहता विचलन
अपने ही अस्तित्व से
कब तक यह सिलसिला चलेगा
जानना है असंभव
फिर भी प्रयत्न जारी है
कभी तो सामंजस्य होगा
तभी सुकून मिल पाएगा
अशांत मन स्थिर होगा |
झूमते लहराते
कजरे की धार पैनी कटार से
वार कई बार किया करते
स्मित मुस्कान टिक न पाती
मन के भाव बताती
चहरे पर आई तल्खी
भेद सारे खोल जाती
कोई वार खाली न जाता
घाव गहरे दे जाता
जख्म कहर वरपाते
मन में उत्पात मचाते
तभी होता रहता विचलन
अपने ही अस्तित्व से
कब तक यह सिलसिला चलेगा
जानना है असंभव
फिर भी प्रयत्न जारी है
कभी तो सामंजस्य होगा
तभी सुकून मिल पाएगा
अशांत मन स्थिर होगा |