हो बबूल के पेड़ जैसे
बड़ी समानता है दौनों में
क्या लाभ बबूल से दुनिया को
ना तो पथिक को छाँव दे पाता
ना ही पशुओं का भोजन बन
पाता
सड़क चलते राहगीरों को कष्ट ही दे जाता |
कंटक भूले से यदि पैरों के नीचे आ जाए
लहूलुहान उन्हें कर जाते
तुम्हारे शब्द कंटक होते तीक्ष्ण
चुभ जाते गहरे घाव कर जाते
कितनी भी कोशिश करो
सरलता से कंटक निकल नहीं पाते |
हो इतने कटूभाषी हर शब्द चोट पहुंचाता है
प्यार नाम की चिड़िया का कहीं पता नहीं होता
तुम रूखे इसी बबूल की पत्तियों जैसे
कहीं हरियाली नजर नहीं आती
होली
दिवाली मुस्कुराने पर अचम्भा ही होता है
नेत्र फटे से रह जाते हैं अचानक हुआ परिवर्तन देख
बबूल के पुष्प इतने नर्म कैसे हुए ?
कई बार मन में विचार आता है
कभी तो कोई कौना
ऐसा भी होता होगा मन में
जिसमें छिपी होंगी कोमल सी भावनाएं
जो उभर कर आ जाती हैं
सब के समक्ष अनजाने में |
वैसे तो बबूल में ना तो होती हरियाली
ना है वह उपयोगी छाव के लिए
केवल भार बढ़ा रहा है भूमि पर
पर लकड़ी है काम की उसकी
कोई
भी व्यर्थ नहीं होता इस धरती पर
अच्छाई और बुराई का मेल ही है आदमी
समय की सौगात है जन्म मनुष्य का
काँटों से भरा यह पेड़ बबूल का |
आशा