02 जनवरी, 2010

आस्था का भँवर

आस्था के भँवर में फँस कर
हर इन्सान घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
निकलना भी चाहे अगर
नहीं मिलती है कोई राह
वह बस घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि सत्य में हो
तो कुछ समझ आता है
पर आडम्बर से युक्त
व्यवस्था समाज की
भुला देती है भ्रम सारे |
कोई भी यत्न नहीं तोड़ पाते इसे
सामाजिक आस्था के भँवर में
वह घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि धर्म में हों
तो भी कुछ बात है
पर धार्मिक ढकोसलों में
उलझी आस्था
केवल संताप है ,विश्वास नहीं
इसी लिए घूमते-घूमते ही
इस भँवर से
आस्था भी उठना चाहती है
निकलना चाहती है
इस धार्मिक उन्माद से |
पर मनों बोझ सह कर भी
होता नहीं आसान निकलना
आस्था के भँवर जाल से |
आस्था यदि मनुष्य की मनुष्य में हो
तब भी सोच होता है
पर जब तोड़ देता है मनुष्य
मनुष्य में उत्पन्न आस्था का भ्रम
तब घुटता है दम
आस्था का भँवर
लील जाता है इन्सान को |
बस वह डूबता है उतराता है
उलझ कर रह जाता है
आस्था के भँवर जाल में |

आशा

01 जनवरी, 2010

नूतन अभिनंदन


नूतन हो नव वर्ष
मैं सब का अभिनंदन करने आया हूँ
आज पा सुअवसर
तुम्हारा नेह माँगने आया हूँ |
अधिक समय तक रहा सुप्त
छिपा कर प्यार रहा उन्मुक्त
स्वयं को जान, अपनों को पहचान 
नेह निमंत्रण देने आया हूँ
हे सुभगे मैं तुम्हें मनाने आया हूँ |
मुझसे रूठी सारी खुशियाँ
जबसे  तुमसे रहा दूर
इस अनजानी दूरी को
मैं स्वयं मिटाने आया हूँ
नूतन वर्ष की इस बेला में
मैं प्यार बांटने  आया हूँ |
अपनी कमियों को पहचान
सपनों में भी उनसे रहा दूर
अपनों ने मुझे भुलाया 
 मन में  मेरे शूल चुभाया 
 फासला  और बढ़ाया 
पर  मैं इस अंतर को 
सह नहीं पाया
रह न सका दूर सब से
चाहता दूर मतभेद करना
नूतन अभिनंदन हे सुभगे
मैं तुम्हें मनाने आया हूँ |
आज सुअवसर देख 
तुम्हारा नेह पाने आया हूँ |


आशा

28 दिसंबर, 2009

मेरी पहचान

जब मैं छोटी बेटी थी मनसा था मेरा नाम
बड़ी शरारत करती थी पर थी मैं घर की शान |
वैसे तो माँ से डरती थी ,
माँ के आँख दिखाते ही मैं सहमी-सहमी रहती थी ,
मेरी आँखें ही मन का दर्पण होती थीं,
व मन की बातें कहती थीं
एक दिन की बताऊँ बात ,
जब मैं गई माँ के साथ ,
सभी अजनबी चेहरे थे ,
हिल मिल गई सभी के साथ ,
माँ ने पकड़ी मेरी चुटिया
यही मेरी है प्यारी बिटिया ,
मौसी ने प्यार जता पूछा ,
"इतने दिन कहाँ रहीं बिटिया? "
तब यही विचार मन में आया ,
क्या मेरा नाम नही भाया ,
जो मनसा से हुई आज बिटिया
बस मेरी बनी यही पहिचान ,
'माँ की बिटिया' 'माँ की बिटिया' |
जब मै थोड़ी बड़ी हुई ,
पढ़ने की लगन लगी मुझको ,
मैंने बोला, "मेरे पापा मुझको शाला में जाना है !"
शाला में सबकी प्यारी थी ,
सर की बड़ी दुलारी थी ,
एक दिन सब पूंछ रहे थे ,
"कक्षा में कौन प्रथम आया ,
हॉकी में किसका हुआ चयन ?"
शिक्षक ने थामा मेरा हाथ ,
परिचय करवाया मेरे साथ ,
कहा, "यही है मेरी बेटी ,
इसने मेरा नाम बढ़ाया !"
तब बनी मेरी वही पहचान ,
शिक्षक जी की प्यारी शान
बस मेरी पहचान यही थी ,
मनसा से बनी गुरु की शान |
जिस दिन पहुँची मैं ससुराल ,
घर में आया फिर भूचाल ,
सब के दिल की रानी थी ,
फिर भी नहीं अनजानी थी ,
यहाँ मेरी थी क्या पहचान ,
केवल थी मै घर की जान ,
अपनी यहाँ पहचान बनाने को ,
अपना मन समझाने को ,
किये अनेक उपाय ,
पर ना तो कोई काम आया ,
न बनी पहचान ,
मै केवल उनकी अपनी ही ,
उनकी ही पत्नी बनी रही ,
बस मेरी बनी यही पहचान ,
श्रीमती हैं घर की शान ,
अब मैं भूली अपना नाम ,
माँ की बिटिया ,गुरु की शान ,
उनकी अपनी प्यारी पत्नी ,
अब तो बस इतनी ही है ,
मेरी अपनी यह पहचान ,
बनी मेरी अब यही पहचान |

आशा