आस्था के भँवर में फँस कर
हर इन्सान घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
निकलना भी चाहे अगर
नहीं मिलती है कोई राह
वह बस घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि सत्य में हो
तो कुछ समझ आता है
पर आडम्बर से युक्त
व्यवस्था समाज की
भुला देती है भ्रम सारे |
कोई भी यत्न नहीं तोड़ पाते इसे
सामाजिक आस्था के भँवर में
वह घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि धर्म में हों
तो भी कुछ बात है
पर धार्मिक ढकोसलों में
उलझी आस्था
केवल संताप है ,विश्वास नहीं
इसी लिए घूमते-घूमते ही
इस भँवर से
आस्था भी उठना चाहती है
निकलना चाहती है
इस धार्मिक उन्माद से |
पर मनों बोझ सह कर भी
होता नहीं आसान निकलना
आस्था के भँवर जाल से |
आस्था यदि मनुष्य की मनुष्य में हो
तब भी सोच होता है
पर जब तोड़ देता है मनुष्य
मनुष्य में उत्पन्न आस्था का भ्रम
तब घुटता है दम
आस्था का भँवर
लील जाता है इन्सान को |
बस वह डूबता है उतराता है
उलझ कर रह जाता है
आस्था के भँवर जाल में |
आशा
लेकिन इस भँवर में भी मैरी गो राउण्ड झूले का मज़ा है ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित और गम्भीर कविता है । जब मनुष्य इस भँवर जाल से बाहर निकलने का उपाय ढूँढ लेगा उसके सारे संताप स्वयमेव समाप्त हो जायेंगे । आपकी कविता लोगों की आँखे खोलने की सामर्थ्य रखती है ।
जवाब देंहटाएंआस्था का भँवर
जवाब देंहटाएंलील जाता है इन्सान को |
बस वह डूबता है उतराता है
उलझ कर रह जाता है
आस्था के भँवर जाल में
सच्ची बात काही है आंटी।
सादर
बिल्कुल सच कहा है आपने ...बेहतरीन ।
जवाब देंहटाएंआस्था यदि मनुष्य की मनुष्य में हो
जवाब देंहटाएंतब भी सोच होता है ,
पर जब तोड़ देता है मनुष्य ,
मनुष्य में उत्पन्न आस्था का भ्रम ।
तब घुटता है दम
आस्था का भँवर
लील जाता है इन्सान को |
बेहद गहन अभिव्यक्ति..
सादर.
आस्था यदि मनुष्य की मनुष्य में हो
जवाब देंहटाएंतब भी सोच होता है ,
पर जब तोड़ देता है मनुष्य ,
मनुष्य में उत्पन्न आस्था का भ्रम ।
तब घुटता है दम
आस्था का भँवर
लील जाता है इन्सान को |
गहन अभिव्यक्ति...
सादर.
सही और आईना दिखाती हुई रचना.......
जवाब देंहटाएंकभी कभी ये आस्था मन का बोझ हल्का करने के लिए जरूरी भी होती है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लिखा है ....
sundar prastuti..
जवाब देंहटाएंहाँ आशा जी ,आस्था भँवर-जाल वाली न हो कर , अंतर्मन से हो और अपने साक्ष्य-और विश्वास पर निर्मित हो तभी हमें साध पायेगी!
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