28 फ़रवरी, 2011

मन

ना कोई सीमा ना कोई बंधन
उड़ता फिरता मन हो अनंग ,
होता उसका विस्तार
गहन गंभीर जल निधि सा |
है बहुत सूक्ष्म पर बहु आयामी
सिलसिला विचारों का
रुकने का नाम नहीं लेता
अंत उनका नहीं होता |
मन है अंत हीन आकाश सा
गहन गंभीर धरती सा
कभी उड़ते पक्षी सा
तो कभी मोम सा |
विचरण करता केशर क्यारी में
वन उपवन की हरियाली में
कभी उदासी घर कर जाती
भटकता फिरता निर्जन वन में |
चंचल चपल संगिनी तक
प्रेम की पराकाष्ठा तक जा
विचार ठहर नहीं पाता
चंचल मन को कोई भूल नहीं पाता |
ठहराव यदि आया विचार नहीं रहता
तिरोहित हो जाता है
छिप जाता है
सृष्टि के किसी अनछुए पहलू में |

आशा





8 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना के लिए बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  2. चंचल मन को कोई भूल नहीं पाता |
    ठहराव यदि आया विचार नहीं रहता
    bahut sundar kavita hai.

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी रचना के साथ मेरा मन भी असीम विस्तार में उड़ चला है ! बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति ! अति सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं
  4. sochati hu agar man nahi hota to jivan kitana niras ho jata.
    manbhavan kavita.

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत खूबसूरत ... कम से कम एक मन तो है जो पूरी तरह से आज़ाद है ...

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ख़ूबसूरत..आज की दुनिया में केवल एक मन ही आज़ाद है..

    जवाब देंहटाएं
  7. है बहुत सूक्ष्म पर बहु आयामी
    सिलसिला विचारों का
    रुकने का नाम नहीं लेता
    अंत उनका नहीं होता |
    aap bilkul sahi keh rahi hain sach me vichar kabhi viram nahi hote nirantar behte hi rehte hain
    khubsurat rachna

    जवाब देंहटाएं
  8. बाला है ,पर अबला नहीं .
    आंखों की चमक कहती है ,
    सपने पुरे होंगे सभी
    बस थोड़ा विश्वास रखें सभी .

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: