25 अप्रैल, 2011

कहीं तो कमी है


परिवर्तन के इस युग में
जो कल था
आज नहीं है
आज है वह कल ना होगा |
यही सुना जाता है
होता साहित्य समाज का दर्पण
पर आज लिखी कृतियाँ
बीते कल की बात लगेंगी
क्यूँ कि आज भी बदलाव नजर आता है |
मनुष्य ही मनुष्य को भूल जाता है
संबंधों की गरिमा ,रिश्तों की उष्मा
गुम हो रही है
प्रेम प्रीत की भाषा बदल रही है |
समाज ने दिया क्या है
ना सोच निश्चित ना ही कोई आधार
कई समाज कई नियम
तब किस समाज की बात करें |
यदि एक समाज होता
और निश्चित सिद्धांत उसके
तब शायद कुछ हो पाता
कुछ सकारथ फल मिलते |
देश की एकता अखंडता
पर लंबी चौड़ी बहस
दीखता ऊपर से एक
पर यह अलगाव यह बिखराव
है जाने किसकी देन
वही समाज अब लगता
भटका हुआ दिशाहीन सा
वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
लगती है कल्पना मात्र |
आशा









14 टिप्‍पणियां:

  1. वही समाज अब लगता
    भटका हुआ दिशाहीन सा
    वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
    लगती है कल्पना मात्र |
    --
    गवेषणात्मक विश्लेषण से परिपूर्ण रचना समाज को दिशा देने में सक्षम प्रतीत होती है!
    बहुत सुन्दर रचना पोस्ट की है आपने!

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  2. 'संबंधों की गरिमा, रिश्तों की ऊष्मा
    gum हो रही है
    प्रेम प्रीत की भाषा बदल रही है '
    ***********************
    मानवीय संवेदनाओं के क्रमिक ह्रास का बखूबी चित्रण करती ...सुन्दर रचना

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  3. यह हमारे अपने ही जड़ से कट जाने की दास्तां है।

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  4. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    कई समाज कई नियम
    तब किस समाज की बात करें |
    यदि एक समाज होता
    मानवीय संवेदनाओं का बखूबी चित्रण करती ...

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  5. वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
    लगती है कल्पना मात्र.....bilkul theek.....

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  6. भौतिकता की अंधी दौड़ में लोग आत्मकेन्द्रीत होते जा रहे हैं।
    सही कहा है आपने!

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  7. समाज और रिश्तों के बिखराव को सटीक रूप से व्याख्यायित करती एक सशक्त रचना ! बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  8. बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति|धन्यवाद|

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  9. वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
    लगती है कल्पना मात्र |sach ka bhan karti rachna

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  10. आदरणीया आशा जी नमस्कार
    आप की कोमल बातें ,सार्थक प्रयास, सुन्दर अभिव्यक्ति, देख हम अपनी माँ और दादी की दुनिया में खो जाते हैं, कितना सुन्दर कहा आपने निम्न पंक्तियाँ बहुत प्यारी लगीं काश कुछ बदलता

    संबंधों की गरिमा ,रिश्तों की उष्मा
    गुम हो रही है
    प्रेम प्रीत की भाषा बदल रही है
    vasudhaiv kutumbkam वसुधैव कुटुम्बकम सच शायद ही हमें अब कभी देखने को मिले

    सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५

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  11. वसुधैव कुटुम्बकम कहाँ मिलेगा जब अपना कुटुंब ही अपना-सा नहीं लगता ...

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  12. संबंधों की गरिमा ,रिश्तों की उष्मा
    गुम हो रही है
    प्रेम प्रीत की भाषा बदल रही है |
    समाज ने दिया क्या है
    ना सोच निश्चित ना ही कोई आधार
    कई समाज कई नियम
    तब किस समाज की बात करें |
    ******************************
    आशा जी,समाज की विद्रूपता पर अच्छी कविता पूरी तरह भावमयी ...

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  13. पर यह अलगाव यह बिखराव
    है जाने किसकी देन
    वही समाज अब लगता
    भटका हुआ दिशाहीन सा
    वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
    लगती है कल्पना मात्र |
    आशा जी, आपकी चिंता बिलकुल सही है |सादगी और सच्चाई से कही गयी दिल की बात आज के समाज को प्रश्नों के घेरे में खड़ी करती हुई सार्थक रचना, बधाई की सीमा से बाहर

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