तू है सागर की उर्मी सी
संचित ऊर्जा की जननी सी
कैसे शांत रह पाएगी
तट बंध यदि छोड़ा
अपनी राह भटक जाएगी |
जैसे ही सीमां लांघेगी
कई सुनामी आएंगी
आसपास के जन जीवन को
तहस नहस कर जाएँगी |
क्या तेरी संचित ऊर्जा का
कोई उपयोग नहीं होगा
केवल विध्वंसक ही होगी
विनाश का कारण बनेगी |
पर मेरा सोच है कुछ हट कर
तेरी गति तेरा चलन
मन को सुख देता हर दम
तेरे साथ चलने में
वह भी तुझ सा हो जाता
कोई भी कठिन समस्या हो
सरलता से सुलझा पाता |
आशा
संचित ऊर्जा की जननी सी
कैसे शांत रह पाएगी
तट बंध यदि छोड़ा
अपनी राह भटक जाएगी |
जैसे ही सीमां लांघेगी
कई सुनामी आएंगी
आसपास के जन जीवन को
तहस नहस कर जाएँगी |
क्या तेरी संचित ऊर्जा का
कोई उपयोग नहीं होगा
केवल विध्वंसक ही होगी
विनाश का कारण बनेगी |
पर मेरा सोच है कुछ हट कर
तेरी गति तेरा चलन
मन को सुख देता हर दम
तेरे साथ चलने में
वह भी तुझ सा हो जाता
कोई भी कठिन समस्या हो
सरलता से सुलझा पाता |
आशा
आदरणीय आशा माँ
जवाब देंहटाएंनमस्कार
गहन अभिव्यक्तिबहुत सुंदर रचना .....बधाई
प्यारी रचना ! हर रूप के साथ तादात्म्य स्थापित कर ही कुछ महत्वपूर्ण पाया जा सकता है ! बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति ! बधाई स्वीकार करें !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना अच्छी सकारात्मक सोच |
जवाब देंहटाएंआपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (21.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
Bahut hi gahan vichar.
जवाब देंहटाएंJai hind jai bharat
waah ! :-)
जवाब देंहटाएंतेरे साथ चलने में
जवाब देंहटाएंवह भी तुझ सा हो जाता
कोई भी कठिन समस्या हो
सरलता से सुलझा पाता |
bahut achhi rachna
सारगर्भित तथा सार्थक रचना... बधाई
जवाब देंहटाएंवाह... बहुत खूब... अच्छी रचना है!
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