19 मई, 2011

मेरी सोच कुछ हट कर





तू है सागर की उर्मी सी
संचित ऊर्जा की जननी सी
कैसे शांत रह पाएगी
तट बंध यदि छोड़ा
अपनी राह भटक जाएगी |
जैसे ही सीमां लांघेगी
कई सुनामी आएंगी
आसपास के जन जीवन को
तहस नहस कर जाएँगी |
क्या तेरी संचित ऊर्जा का
कोई उपयोग नहीं होगा
केवल विध्वंसक ही होगी
विनाश का कारण बनेगी |
पर मेरा सोच है कुछ हट कर
तेरी गति तेरा चलन
मन को सुख देता हर दम
तेरे साथ चलने में
वह भी तुझ सा हो जाता
कोई भी कठिन समस्या हो
सरलता से सुलझा पाता |

आशा

9 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार
    गहन अभिव्यक्तिबहुत सुंदर रचना .....बधाई

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  2. प्यारी रचना ! हर रूप के साथ तादात्म्य स्थापित कर ही कुछ महत्वपूर्ण पाया जा सकता है ! बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति ! बधाई स्वीकार करें !

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  3. सुंदर रचना अच्छी सकारात्मक सोच |

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  4. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (21.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  5. तेरे साथ चलने में
    वह भी तुझ सा हो जाता
    कोई भी कठिन समस्या हो
    सरलता से सुलझा पाता |
    bahut achhi rachna

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  6. सारगर्भित तथा सार्थक रचना... बधाई

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  7. वाह... बहुत खूब... अच्छी रचना है!

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