26 फ़रवरी, 2014

सुबह हुई ही नहीं


आँखें क्यूं खोली जाएं
जब धूप खिली ही नहीं
उठने की बात कहाँ से आई
जब सुबह हुई ही नहीं  |

प्यार के भ्रम में न रहना
लगती है यह एक साजिश
प्यार आखिर हो कैसे
जब दिल की दिल से राह नहीं |

संभावना अवश्य दीखती
कहीं आग लगने की
जले हुए दिल से धुंआ निकलने की
वैसे तो सुबह हुई ही नहीं
आशा

23 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,आभार आपका।

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  2. सुन्दर प्रस्तुति-
    आभार आदरेया-

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. सुन्दर रचना ! ताज़गी से भरी ! बहुत अच्छी लगी !

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