आँखें क्यूं खोली जाएं
जब धूप खिली ही नहीं
उठने की बात कहाँ से आई
जब सुबह हुई ही नहीं |
प्यार के भ्रम में न रहना
लगती है यह एक साजिश
प्यार आखिर हो कैसे
जब दिल की दिल से राह नहीं |
संभावना अवश्य दीखती
कहीं आग लगने की
जले हुए दिल से धुंआ निकलने की
वैसे तो सुबह हुई ही नहीं
आशा
बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद झा साहब
हटाएंबहुत सुन्दर.....आनंद आ गया !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय |
हटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,आभार आपका।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर |
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरेया-
धन्यवाद रविकर जी |
हटाएं
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सूचना हेतु आभार सर |
हटाएंबहुत खूब,सुंदर रचना...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST - फागुन की शाम.
धन्यवाद धीरेन्द्र जी |
हटाएंbahut sundar rachna
जवाब देंहटाएंnew post उम्मीदवार का चयन
New**अनुभूति : शब्द और ईश्वर !!!
टिप्पणी हेतु धन्यवाद सर |
हटाएंसुन्दर रचना ! ताज़गी से भरी ! बहुत अच्छी लगी !
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु धन्यवाद सर |
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु धन्यवाद सर |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कौशल जी |
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मधु जी |
हटाएंबहुत सुंदर कविता .....
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंआशा