वही अवीर वही
गुलाल
हंसी खुशी और
खुमार
बस चेहरे बदल गए
हैं
होली के अर्थ बदल
गए हैं |
होली तो होली है
रंग में सभी लाल
पर कुछ फर्क हुआ
है
रिश्ते बदल गए
हैं |
हर वर्ष बड़े
उत्साह से
दहन होलिका का
करते
खेली जाती होली
ओ मेरे हमजोली |
गले मिलते फाग
गाते
चंग की थाप पर
ठुमके लगाते मीठा खाते
बैर भाव भूल जाते |
ना बड़ा ना छोटा
कोई
समभाव मन में
रहता
तन मन रंगता जाता
मन का कलुष फिर भी
दूर न हो पाता |
दूर न हो पाता |
आशा
इंसान की फ़ितरत बदलती जा रही है -किसी भी त्यौहार का रूप अब पहलेवाला कहाँ रहा है !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रतिभा जी |
हटाएंबहुत सुन्दर समसामयिक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंटिप्पणी लेखन को बल देती हैं |धन्यवाद सर |
हटाएंबहुत सुन्दर रचना ! आपने होली का मूड बना दिया ! रंगों के इस पर्व पर हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभ कामनाएं साधना
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (10-03-2014) को आज की अभिव्यक्ति; चर्चा मंच 1547 पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सूचना और टिप्पणी के लिए धन्यवाद सर |
हटाएंबहुत सुंदर रचना...........
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी हेतु |
हटाएंsundar..waah
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर |
हटाएंबहुत सुंदर और समसामयिक रचना ....रंगोत्सव की अगवानी करती सी ......सच ही
जवाब देंहटाएंपहले सा अपनापन न जाने कहाँ खोगया .....
आपने बहुत सही कहा है अब त्यौहार त्यौहार नहीं लगते |
हटाएंसामयिक ... सब कुछ बदल रहा है ... पर ये बदलाव हम से है ... त्योहारों में तो कुछ कमी नहीं ...
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद सर |
हटाएंbahut sunder rachna
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुनीता जी |
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