टपटप टपकतीं
झरझर झरतीं
धरती तरवतर होती
गिले शिकवे भूल जाती |
हरा लिवास पहन ललनाएं
कई रंग जीवन में भरतीं
हाथों में मेंहदी रचातीं
मायके को याद करतीं |
हाथों में मेंहदी रचातीं
मायके को याद करतीं |
सावन की घटाएं छाईं
आसमान हुआ स्याह
पंछियों ने गीत गाया
गुनगुनाने का जी चाहा |
झिमिर झिमिर वृष्टि जल की
ताप सृष्टि का हरती
वर्षा की नन्हीं बूंदें
थिरकती नाचतीं किशलयों पर|
थिरकती नाचतीं किशलयों पर|
वे हिलते डुलते मरमरी धुन करते
हो सराबोर जल
नृत्य में सहयोग करते
नृत्य में सहयोग करते
आनंद चौगुना करते |
नहाती बच्चों की टोली वर्षा में
है यही आनंद वर्षा में नहाने का
सृष्टि के सान्निध्य का |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (28-06-2019) को "बाँट रहे ताबीज" (चर्चा अंक- 3380) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सूचना हेतु आभार सर |
हटाएंबारिश का बहुत सुन्दर शब्द चित्र ! मन को ठंडक पहुँचा रही है आपकी रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंसुंदर चित्र और शब्द..बारिश में भीगने का अपना ही आनंद है
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंमेरी रचना पर टिप्पणी के लिए धन्यवाद |
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना शामिल करने के लिए आभार श्वेता जी |
बेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत सुंदर रचना आशा जी ।
जवाब देंहटाएं