दिल तो है विशाल
बहुत कुछ समा सकता है इसमें
तुम पढ़ते पढ़ते थक जाओगे
मेरे भीतर मिलेगा तुम्हें
एक अखवार मोहब्बत का
जिसमें छपा होगा कोई पैगाम
जब भी उसे पढ़ोगे
छलकेंगे नयन तुम्हारे
फिर भी उसे न खोज पाओगे
है वहां छिपी एक ऎसी पहेली
ना ही उसे समझ पाओगे
ना ही हल कर पार्ओगे
मन है ही एक उलझनों का अखवार
जितना सोचोगे विचारोगे
उलझन के चक्र व्यूह में
उलझते ही चले जाओगे |
आशा
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-06-2019) को "-- कैसी प्रगति कैसा विकास" (चर्चा अंक- 3376) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सूचना हेतु आभार सर |
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/06/2019 की बुलेटिन, " अमर शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जी की ११८ वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार सर |
हटाएंदिल की बातें दिल ही जाने।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता लिखी है आपने।
धन्य्वाद नुतीश जी |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय टिप्पणी के लिए |
हटाएंसमझ न पाये पहेली तो विशाल हृदय की थाह कैसे मिले!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वाणी जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंविशाल दिल की भूल भुलैया में खो जाने का खतरा भी तो है ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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