कोरे कागज़ सा मन बचपन
का
भला बुरा न समझता
ना गैरों का प्यार
जो होता मात्र दिखावा |
दुनियादारी से दूर
बहुत
मन उसका कोमल कच्चे
धागे सा
जितना सिखाओ सीख लेता
उसी का अनुकरण करता
|
गुण अवगुण का भेद न जान
अपने पराए में भेद न
करता
मीठे बोल उसे करते आकृष्ट
खीचा चला जाता उस ओर|
जिसने भी बोले मधुर बोल
उसी को अपना मानता
होती वही प्रेरणा उसकी
उसी का अनुगमन करता |
मन तो मन ही है
बचपन में होता चंचल जल सा
स्थिर नहीं रहता
जल्दी ही बहक जाता
है |
जरा सा दुलार उसे अपना
लेता
माँ से बड़ा जुड़ाव है
रखता
उसमें अपनी छाया पा
मन मेरा
गर्व से उन्नत होता |
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 11 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंऔप्रभात
हटाएंयशोदा जी आभार सूचना के लिए |
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए ओंकार जी |
हटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंसूचना के लिए आभार अनीता जी |
सुंदर रचना अभिवादन
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद नीलांश जी |
मन की गति कौन समझ सकता है ना ही कभी उसकी उम्र आँकी जा सकती है ! कभी बच्चों सा चंचल होता है तो कभी बड़ों सा प्रौढ़ ! सुन्दर रचना !
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