हाथों से समय फिसल गया
हो गया निश्प्रह निष्क्रीय प्राणी
बन कर नियति के हाथों का खिलोना
मन मसोस कर रह गया |
इतना कमजोर पहले कभी न था
कितनी भी समस्याएँ आईं
उनसे मुंह न मोड़ा
डट कर सामना किया उनका
पीठ फेर उनसे कभी भागा नहीं |
इस बार जाने क्यों
किसी ने सचेत न किया
मैं अंतरात्मा की आवाज
तक न सुन पाया |
यह भूल हुई कैसे अनजाने में
समझ नहीं पाया
अब पश्च्याताप हो रहा है
यह मैंने क्या किया ?
आशा
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 14 दिसंबर 2020 को 'जल का स्रोत अपार कहाँ है' (चर्चा अंक 3915) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
धन्यवाद रवीन्द्र सिंह जी सूचना के लिए |
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शांतनु जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसमय निकल ही जाता है
जवाब देंहटाएंबगैर समय के आदमी रह जाता है खाली ख़ाका, जिससे कुछ ना हो पाता फिर।
बहुत सुंदर ।
नई रचना- समानता
धन्यवाद रोहितास जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए आभार यशोदा जी |
बहुत बहुत सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसमय किसी की प्रतीक्षा कहाँ करता है ,बहुतसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी के लिए आभार सहित धन्यवाद जी |
सुन्दर रचना ! जब तू जागे तभी सवेरा !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए आभार सहित धन्यवाद साधना |